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४४१] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
मणस्स भावं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ||८७॥ भाव (विचार, चिन्तन, अभिप्राय) को मन का ग्रहण करने योग्य विषय कहा जाता है। जो भाव राग का हेतु होता है वह मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का कारण बनता है वह अमनोज्ञ कहा गया है। जो उसमें सम रहता है वह वीतरागी है ॥८७॥
Feeling (thoughts, thinkings, purports) are said the object of mind. Pleasant feelings are the cause of attachment and unpleasant feelings cause detachment. (87)
भावस्स मणं गहणं वयन्ति, मणस्स भावं गहणं वयन्ति ।
रागस्स हेउं समणुनमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥८८॥ मन को भाव का ग्राहक (गहणं) ग्रहण करने वाला कहते हैं और भाव को मन का ग्राह्य (जो ग्रहण किया जाता है) कहते हैं। राग का हेतु समनोज्ञ भाव कहा जाता है और अमनोज्ञ को द्वेष का कारण कहा है ॥८८॥
Mind is the grasper of feelings and feelings are grasped by mind. Pleasant feelings are the cause of attachment and unpleasant feelings are said the cause of detachment. (88)
भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं ।
रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिए व नागे ॥८९॥ जो भावों में अत्यधिक गृद्धि करता है, वह उसी प्रकार अकाल (असमय) में विनष्ट हो जाता है जिस प्रकार हथिनी के प्रति आकृष्ट और कामगुणों में गृद्ध, राग में आतुर बना हुआ हाथी विनाश को प्राप्त हो जाता है ॥८९॥
Who is extremely indulged in pleasant feelings, he gets untimely ruin. As the elephant attracted to female elephant, indulged in sexual intercourse and inspired by attachment is ruined. (89)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि भावं अवरज्झई से ॥१०॥ जो अमनोज्ञ-अप्रिय भाव के प्रति तीव्र द्वेष करता है, उसी क्षण वह प्राणी स्वयं अपने ही दुर्दान्त दोष के कारण दुःख पाता है। इसमें भाव का किंचित् भी अपराध अथवा दोष नहीं है ॥१०॥
Who bitterly hates the unpleasant feelings, he at the same moment attains pain on account of his own unsubdued blemish. There is not a bit of fault of feelings in it. (90)
एगन्तरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥११॥ जो व्यक्ति रुचिर (प्रिय अथवा रुचिकर) भाव में एकान्त-अत्यधिक रूप से गृद्ध (रक्त) होता है तथा । उसके प्रतिकूल अप्रिय-अरुचिकर भाव के प्रति प्रद्वेष करता है वह व्यक्ति दुःखजन्य पीड़ा को प्राप्त करता है लेकिन विरक्त (राग-द्वेष से विरत) मुनि उसमें (प्रिय-अप्रिय भावों में) लिप्त नहीं होता ॥११॥
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