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४३३ ] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
जो रुचिर ( प्रिय--मनोज्ञ) सुगन्ध में अत्यधिक गृद्ध रहता है और अतादृश (अप्रिय - अमनोज्ञ) गन्ध में प्रद्वेष करता है वह अज्ञानी जीव दुःख के समूह को प्राप्त करता है। लेकिन विरागी मुनि उससे ( प्रिय-अप्रिय गंध में राग-द्वेष न करके) लिप्त नहीं होता ॥ ५२ ॥
Who is keenly addicted to fragrance and hates effluvium that ignorant person suffers by groups of pains. But indifferent monk is not effected; because he is devoid of attachment and detachment to pleasant and unpleasant smells. (52)
गन्धाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरु किलिट्टे ॥५३॥
प्रिय सुगन्ध की आशा के पीछे दौड़ता हुआ जीव चराचर - त्रस स्थावर जीवों की अनेकरूप से हिंसा करता है। अपने ही स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी उन्हें उन जीवों को विचित्र-विचित्र प्रकार से परितापित और पीड़ित करता है ॥ ५३ ॥
Keenly desirous of fragrance, such person injures movable and non-movable living beings by different ways. Paying primacy to his own interest the ignorant person torments and tortures them by various methods. (53)
गन्धाणुवारण परिग्गहेण,
उप्पाय
रक्खणसन्निओगे | वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥५४॥
गंध (प्रिय सुगन्ध) के प्रति अत्यधिक राग और परिग्रह - ममत्व के कारण गंध को उत्पन्न करने, उसकी रक्षा करने और सन्नियोजन, व्यय तथा वियोग में सुख कहाँ है और उपभोग के समय भी अतृप्ति ही प्राप्त होती है (यह भी दुःख ही है ) ॥ ५४ ॥
Due to much more love to fragrance and myness for seizing, how can he be delighted in producing, keeping, using, losing and missing those fragrances. Even at the moment of enjoying he cannot be satiated. (This is also a pain). (54)
गन्धे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ५५ ॥
गंध में अतृप्त (असंतुष्ट) और उसके (गन्ध के) परिग्रहण में अत्यधिक आसक्त व्यक्ति को तुष्टि प्राप्त नहीं होती। वह अतुष्टि से दुःखी और लोभ की व्याकुलता - अधिकता के कारण दूसरों की न दी हुई वस्तु को ग्रहण कर लेता है, अदत्तादान चोरी करता है ॥५५ ॥
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Dissatisfied in fragrances and much more indulged in seizing them, such man can never be satisfied. Suffering from pain of dissatisfaction and overwrought by greed he takes the things ungiven by their owners-stals others' things. (55)
तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, गन्धे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामु वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥५६॥
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