Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 538
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र तृष्णा से अभिभूत तथा गन्ध और परिग्रह में अतृप्त, दूसरों की वस्तुओं को चुराने वाले के लोभ की बुराई से कपट और झूठ बढ़ जाते हैं। कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी उसका दुःख समाप्त नहीं होता, दुःख से मुक्ति नही मिलती ॥ ५६ ॥ द्वात्रिंश अध्ययन [ ४३४ Overwhelmed by keen desire and dissatisfied by seizing, the stealer's-deceit and falsehood go on increasing by the blemish of greediness. Practising falsehood and deceit his pains do not come to an end, he cannot get rid of them. (56) मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो, गन्धे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥५७॥ असत्य-प्रयोग - मिथ्या बोलने से पहले, उसके पश्चात् और झूठ बोलते समय भी वह दु:खी होता है और उसका अन्त भी दुःखपूर्ण ही होता है। इस प्रकार गन्ध में अतृप्त, सुगन्धित वस्तुओं की चोरियाँ करने वाला व्यक्ति दुःखी और अनाश्रित हो जाता है ॥५७॥ Before, after and while speaking untruth he becomes sorrowful and the consequences are also full of pains. Thus the person dissatisfied in fragrances and stealer of fragrant things becomes sorrowful and unprotected. (57) गन्धाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? | तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ ५८ ॥ इस तरह गंध में आसक्त मानव को कदापि और कुछ भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? जिसके लिए वह दुःख सहन करता है। उसके उपभोग में भी उसे क्लेश और दुःख की ही प्राप्ति होती है ॥ ५८ ॥ Thus the person addicted to fragrances, how can he obtain a bit of delight for which he suffers so much pains and while enjoying fragrance he gets only pains and miseries. (58) एमेव गन्धम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । दुचित्तो यचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥५९॥ इसी तरह जो (अप्रिय - अमनोज्ञ) गन्ध में प्रद्वेष करता है, उसे दुःख समूह की परंपराएँ प्राप्त होती हैं। वह द्वेषयुक्त हृदय से जिन कर्मों का संचय करता है वही कर्म फलभोग के समय दुःखदायी बन जाते हैं ॥५९॥ In the same way who hates effluvium he gets the group of chains of miseries. With hateful mind he accumulates those karmas which give pains in consequences. (59) Jain Education International गन्धे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्यई भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणी - पलासं ॥६०॥ गंध (मनोज्ञ और अमनोज्ञ) से विरक्त मनुष्य को अवसाद ( शोक) नहीं होता, वह संसार में रहता हुआ भी दुःख परम्पराओं से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार जल रहता हुआ भी कमलपत्र जल से निर्लिप्त रहता है ॥६०॥ The person indifferent to fragrance and effluvium does not feel sorrow, living in world he is not effected just like the lotus leaf remaining in large pond does not moistened by water. (60) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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