Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 541
________________ ४३७] द्वात्रिंश अध्ययन उत्तराध्यय Overwhelmed by extensive desire and dissatisfied by taste and seizing those dainties, and by blemish of greediness, the stealer's deceit and falsehood go on increasing. But practising falsehood and deceit he can not put an end to his miseries. (69) मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥७०॥ मिथ्या भाषण करने से पहले, उसके बाद तथा मिथ्या बोलते समय भी वह दुःखी होता है और उसका अन्त भी दुःख पूर्ण होता है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर, चोरी करता हुआ वह दुःखित और निराश्रित हो जाता है ||७०॥ Before, after and while telling a lie he becomes sorrowful and its consequences are also full of pains. Thus discontented in tastes, stealing he becomes sorrowful and without protection. (70) रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ?। तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥७१॥ इस तरह रस (स्वाद) में अधिक आसक्त मानव को कदाचित भी सुख कहाँ से प्राप्त हो सकता है? जिसको प्राप्त करने के लिए वह इतने दुःख उठाता है। उसके उपभोग में भी दुःख और क्लेश ही होता है ||७१॥ Thus the person excessively addicted to delicious taste, how can he get a bit of delight for obtaining which he suffers so much pains, while enjoying those tastes he feels pain only. (71) एमेव रसम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥७२॥ इसी तरह (अमनोज्ञ) रस में द्वेष करने वाला व्यक्ति भी दुःख की परम्पराएँ प्राप्त करता है। प्रदुष्ट चित्त से जिन कर्मों का संचय करता है वही पुनः विपाक के समय दुःख रूप हो जाते हैं ॥७२॥ In the same way, who hates undelicious taste he gets chains of sufferings, and with hateful heart he accumulates the karmas which bear painful consequences. (72) रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥७३॥ रस में रक्त न होने वाला मनुष्य अवसाद नहीं करता। जिस प्रकार जल में रहता हुआ कमल-पत्र जल से लिप्त नहीं होता। उसी प्रकार संसार में रहता हुआ भी वह मानव इस दुःख संपात की परंपरा से लिप्त नहीं होता ॥७३॥ Who is not indulged in delicious taste he does not feel sorrow. As the lotus leaf is not moistened by water, in the same way that person is not effected by chains of pains, living in this world. (73) Jain Eduation International For Private & Personal Use Only wwwjaintibrary.org

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