Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 525
________________ ४२३] द्वात्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र जो राग और द्वेष तथा उसी प्रकार मोह को मूल सहित उखाड़ने की इच्छा करने वाला है उसे जिस-जिस प्रकार के उपाय करने-अपनाने चाहिए उन (उपायों) का मैं अनुक्रम से (क्रमशः) कथन करूँगा ॥९॥ Who wants to uproot attachment, detachment and infatuation, what means he should adopt, I shall explain those in due order. (9) रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥१०॥ रसों का अधिक सेवन न करे; क्योंकि रस प्रायः उन्माद बढ़ाने वाले अथवा कामोद्दीपन करने वाले होते हैं और (उद्दीप्त मानव को) विषय-भोग (काम) उसी प्रकार उत्पीड़ित करते हैं जिस प्रकार स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी करते हैं ॥१०॥ He should not take tasty food in excessive quantity; because tastes are often enhancer of intoxication and exciting sex and sexualities harasses the excited man as the birds harass the tree with juicy and tasty fruits. (10) जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बम्भयारिस्स हियाय कस्सई ॥११॥ जिस प्रकार प्रचुर ईंधन वाले जंगल में प्रचण्ड पवन के साथ लगी हुई दावाग्नि किसी उपाय से शांत नहीं होती उसी प्रकार अतिमात्रा में अथवा अपनी इच्छानुकूल भोजन करने वाले (पगाम भोजी) की इन्द्रियाग्नि (इन्द्रियों में उत्पन्न हुई काम-वासना की अग्नि) भी किसी भी उपाय से शांत नहीं होती अतः ब्रह्मचारी के लिए (प्रकाम भोजन) किसी भी प्रकार से हितकारी नहीं होता ॥११॥ As in a dense forest filled with fuel, a fire fanned by strong wind can not be extinguished by any means, in the same way who takes food in excessive quantity and according to his own desire, the fire of senses (fire of sensuality) of such person can never be extinguished. So excessive tasty food never becomes beneficial to a celibate. (11) विवित्तसेज्जासणजन्तियाणं, ओमासणाणं दमिइन्दियाणं । न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ बाहिरिवोसहेहिं ॥१२॥ जो विविक्त (स्त्री-पशु-नपुंसक से रहित) शैया और आसन से नियंत्रित (नियमबद्ध) है, जो अल्प आहार करने वाला है, जिसने अपनी इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसके चित्त को राग-द्वेष रूपी शत्रु उसी प्रकार पराभूत नहीं कर सकते जिस प्रकार औषधियों से पराजित (समाप्त) की हुई व्याधि पुनः रोगी को आक्रान्त नहीं कर सकती ॥१२॥ Who is controlled and regulated by lonely seat and lodge (unfrequented by women, Eunuch and beasts), who takes little or limited food and has subdued his senses; the attachment and detachment foes cannot overcome his mind as the disease uprooted by hedicines can not attack the man again. (12) जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बम्भयारिस्स खमो निवासो ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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