Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 531
________________ ४२९] द्वात्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र world, is not effected by the attachment and detachment towards colours (forms, frames, figures etc. (34) सोयस्स सदं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुनमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥३५॥ श्रोत्र (कर्णेन्द्रिय) के विषय को शब्द कहा गया है। जो शब्द राग का हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है और अमनोज्ञ को द्वेष का कारण बताया गया है लेकिन जो इन दोनों (मनोज्ञ और अमनोज्ञ) में सम-समभाव रखता है, वह वीतराग है ॥३५॥ Ear is said perceiver of sound, pleasant sound generates attachment and unpleasant sound is the cause of detachment; but who remains equanimous in both the conditions, he is attachment-free or even-minded. (35) सद्दस्स सोयं गहणं वयन्ति, सोयस्स सदं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥३६॥ शब्द को ग्रहण करने वाला श्रोत्र कहा गया है और शब्द को श्रोत्र का ग्राहक (ग्रहण करने योग्य विषय) बताया गया है। उसमें जो शब्द राग का हेतु होता है उसे समनोज्ञ और द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ कहा गया है ॥३६॥ Ear is said grasper of sound, and sound is the grasping object of ear, pleasant or sweet sound causes attachment and unpleasant sound is the cause of detachment (36) सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥३७॥ जो (मनोज्ञ) शब्दों में तीव्र गृद्धि-आसक्ति रखता है वह राग में आतुर व्यक्ति अकाल में ही विनष्ट हो | जाता है ठीक उसी प्रकार जिस तरह शब्द में अत्यासक्त मूढ़ बना हुआ हरिण (मृग-पशु) मृत्यु को प्राप्त | करता है, मर जाता है ॥३७॥ Who indulged deep in sweet sounds by his own addictment he gets untimely ruin just as keenly afflicted to sweet sound deer dies. (37) जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि सदं अवरज्झई से ॥३८॥ और जो (अमनोज्ञ) शब्द के प्रति तीव्र द्वेष करता है वह प्राणी उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण | दुःख का उपार्जन करता है। इसमें शब्द का किंचित् भी अपराध (दोष) नहीं होता ॥३८॥ Contrary to this, who has keen detachment to unpleasant sounds, he suffers due to his own sharp detachment. There is no fault of sound in it. (38) एगन्तरत्ते रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पओसं । दक्खस्स संपीलमवेड बाले. न लिप्पई तेण मणी विरागो ॥३९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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