Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

View full book text
Previous | Next

Page 530
________________ तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र द्वात्रिंश अध्ययन [४२८ Overwhelmed by keen desire, burglar of others' things, dissatisfied by colour and possessions; due to blemish of greed his deceits and lies go on increasing, and even then he can not get rid of pains and sufferings. (30) मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥३१॥ झूठ बोलने से पहले और बाद में तथा असत्य का प्रयोग (बोलते) करते समय भी वह दुःखी होता है और उसका परिणाम (अन्त) भी दुःखमय होता है। इस प्रकार अदत्तादान (चोरी) का आचरण करता हुआ तथा रूप से अतृप्त व्यक्ति दुःखी और अनाश्रित (आश्रय विहीन-निराधार) हो जाता है ॥३१॥ He becomes sorrowful before, after and while telling a lie and consequences are also full of pains. Thus practising stealing dissatisfied by colour, the person becomes painful and protectionless. (31) रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? | तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥३२॥ इस प्रकार रूप में अनुरक्त-आसक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख प्राप्त हो सकता है ? जिसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य इतना दुःख-कष्ट सहता है। उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख का ही अनुभव होता है ॥३२॥ Thus the person, addicted in colours can attain delight when, where and how much? For obtaining that delight he suffers so much pains. During enjoyment of those colours only pains are felt. (32) एमेव रूवम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥३३॥ इसी तरह रूप के प्रति प्रद्वेष करने वाला भी अनेक प्रकार की दुःख परम्पराओं को प्राप्त करता है और वह प्रद्वेष युक्त चित्त वाला होकर जिन कर्मों का संचय करता है वे कर्म भी विपाक-फल प्रदान करते समय दुःखरूप ही होते हैं ॥३३॥ In the same way, who hates the colours gets the chain of pains, and by detachment he accumulates the karmas they also becomes painful in consequence. (33) रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥३४॥ (किन्तु) रूप से विरक्त (राग-द्वेष हीन) व्यक्ति को शोक नहीं होता, वह इन दुःखों की परम्पराओं से मुक्त रहता है। जिस प्रकार जलाशय में-पुष्करिणी में रहता हुआ कमल का पत्ता जल से निर्लिप्त रहता है उसी तरह वह मनुष्य भी संसार में रहता हुआ भी (रूप के प्रति राग-द्वेष से) लिप्त नहीं होता ॥३४॥ But the person, indifferent to colours remains free from painful chains. Just as the leaf of lotus, remaining in pond is not moistened by water, so that indifferent person living in the Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652