Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

View full book text
Previous | Next

Page 510
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र The mendicant, who always remains attentive in respect of eight types of prides, nine types of celibacy incognitoes, and ten types of sage-religious order; he does not remains in this world. (10) एकत्रिंश अध्ययन [ ४०८ उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥११॥ जो भिक्षु उपासकों (श्रमणोपासकों) की (ग्यारह) प्रतिमाओं और भिक्षु (साधु की बारह ) प्रतिमाओं में सदा (उपयोगवान) यतनाशील रहता है, वह संसार में नहीं रहता ॥११॥ The mendicant, who always remains strenuous, with regard to householders' eleven special determinative resolutions (pratimā), sages' twelve special propiliations (pratimā), he does not remain in this world. ( 11 ) किरियासु भूयगामेसु य । परमाहम्मिएसु जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ॥१२॥ जो भिक्षु (तेरह) क्रियाओं में, ( चौदह प्रकार के ) भूतग्रामों (जीव समूहों ) और (पन्द्रह प्रकार के ) परमाधार्मिक देवों में सदा यतनाशील (उपयोगवान) रहता है, वह संसार में नहीं रुकता ॥१२॥ The mendicant, who remains always attentive with regard to thirteen types of activities, fourteen kinds of living beings (groups of empirical souls) and fifteen kinds of irreligious and cruel deities, he does not stop in this world. (12) गाहासोलसएहिं तहा य । असंजमम्मि जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥१३॥ जो भिक्षु गाथा षोडशक (सूत्रकृतांग के सोलह अध्ययन ) और (सत्रह प्रकार के ) असंयम में सदा (उपयोग युक्त) यतनावान रहता है, वह संसार में नहीं रुकता ॥१३॥ The mendicant, who always remains strenous to sixteen gathās (16 chapters of Sutrakrtanga sutra) and (abandoning) seventeen kinds of non-restrain, he does not stay in the world. (13) Jain Education International बम्भम्मि नायज्झयणेसु, ठाणेसु य ऽसमाहिए । भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥१४॥ जो भिक्षु (अठारह प्रकार के ) ब्रह्मचर्य, ( १९ प्रकार के ) ज्ञातासूत्र के अध्ययन तथा ( बीस प्रकार के ) असमाधिस्थानों में सदा यतनाशील (उपयोगवान) रहता है, वह संसार में नहीं रुकता ॥१४॥ Mendicant, who always exerts himself in eighteen types of celibacy, nineteen chapters of Jñātā sūtra and (alert from) twenty places not worthy for contemplation; he does not remain in this world. (14) परीसहे । एगवीसाए सबलेसु बावीसा जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥१५॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652