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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकोनत्रिंश अध्ययन [३८०
जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ ।
तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥ नाण-विणय-तव-चरित्तजोगे संपाउणइ, ससमय-परसमयसंघायणिज्जे भवइ ॥ सूत्र ६0-(प्रश्न) भगवन् ! ज्ञान संपन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) ज्ञान संपन्नता से जीव सब भावों को जानता है। ज्ञान सम्पन्न जीव चतुर्गति रूप संसार-वन में विनष्ट नहीं होता-रुलता नहीं। __जिस प्रकार धागा सहित सुई गिर जाने पर भी विनष्ट-गुम नहीं होती उसी प्रकार श्रुत ज्ञान संपन्न जीव भी संसार में विनष्ट नहीं होता-भ्रमण नहीं करता।।
ज्ञान-विनय-तप-चारित्र के योगों को प्राप्त करके जीव स्व-समय-पर-समय (स्वमत-परमत) की विवेचना में प्रामाणिक (संघातनीय) माना जाता है। ___Maxim 60. (Q). Bhagawan ! What does the soul acquire by accomplishment of knowledge ?
(A). By accomplishment of knowledge, the soul comes to know all substances and elements. Knowledge-accomplished does not rotate-transmigrates in this world.
As a needle with thread in its pore does not lost, so knowledge-accomplished soul also does not lost in the world.
Acquiring the knowledge-discipline (modesty), penance and conduct the soul is regarded as an authority in the analysis of his own religion (doctrines) and the doctrines of other creeds-sects.
सूत्र ६१-दसणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
दसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्त-छेयणं करेइ, परं न विज्झायइ । अणुत्तरेण नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे, सम्मं भावमाणे विहरइ ॥ ___ सूत्र ६१-(प्रश्न) भगवन् ! दर्शन संपन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है?
(उत्तर) दर्शन (सम्यग्दर्शन) सम्पन्नता से जीव संसार के कारण मिथ्यात्व का छेदन करता है। उसके बाद (सम्यक्त्व का प्रकाश) बुझता नहीं। फिर वह अनुत्तर (श्रेष्ठ) ज्ञान-दर्शन से आत्मा को संयोजित करता हुआ
और सम्यक्प से भावित करता हुआ विचरण करता है। ___Maxim 61. (Q). Bhagawan ! What does the soul acquire by accomplishment of faith? (A). By faith-accomplishment, the soul destructs the wrong belief which is the cause of births and deaths. After that light of right faith never extinguishes. Then he wanders properly enjoining and enlightening his soul with excellent knowledge and faith.
सूत्र ६२-चरित्तसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणयइ । सेलेसिं पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥
सूत्र ६२-(प्रश्न) भगवन् ! चारित्र-सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है?
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