Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 499
________________ ३९७] त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्री आलोचनाह (आलोचना के योग्य) आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त तप है। जिसका भिक्षु सम्यक् रूप से वहन (पालन) करता है, वह प्रायश्चित्त तप कहा जाता है ॥३१॥ Mendicant strictly observes the expiation penance. It is tenfold, like confession of faults etc. (31) अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्ति-भावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥३२॥ खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भाव सहित शुश्रूषा (सेवा करना) विनय तप है ॥३२॥ To stand from seat, fold arms, give seat, devotion to elder sages and teachers and their service is the penance of politeness. (32) आयरियमाइयम्मि य, वेयावच्चम्मि दसविहे । आसेवणं जहाथाम, वेयावच्चं तमाहियं ॥३३॥ आचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार का वैयावृत्य है। उसका यथाशक्ति (अपनी शक्ति के अनुसार) आसेवन (आचरण) करना वैयावृत्य तप है ॥३३॥ Servitude penance is tenfold with respect of preceptors etc. To practise it according to own strength and power is servitude penance. (33) वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मकहा, सज्झाओ पंचहा भवे ॥३४॥ (१) वाचना (२) पृच्छना (३) परिवर्तना (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा-यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है ॥३४॥ (1) Learning or saying lesson (2) question the teacher about it (3) repetition (4) pondering or reflection and (5) religious discourse-this fivefold is study penance. (34) अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काई झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए ॥३५॥ आर्त और रौद्र (ध्यान) को वर्जित कर (छोड़कर) सुसमाहित साधु धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्याता है, वह बुद्धिमानों द्वारा ध्यान तप कहा जाता है ॥३५॥ ___ Abandoning painful (artadhyana) and sinful (raundradhyana) meditations, the zealous and attentive sage engages his concentrated mind in religious (dharmadhyāna) and purest (Sukladhyana) meditations. These (religious and purest meditations) are called meditation penance by wises. (35) सयणासण-ठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.thelbrary.org

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