Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 489
________________ ३८७] एकोनत्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र सूत्र ७३-अ इ उ ऋ ल-ये पाँच ह्रस्व अक्षर हैं। इतना काल १४वें अयोगी गुणस्थान की भूमिका का होता है। तदनन्तर आत्मा देहमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है। शुक्ल ध्यान का अर्थ है-समुच्छिन्न क्रिया वाला एवं पूर्ण कर्म क्षय करने से पहले निवृत्त नहीं होने वाला पूर्ण निर्मल शुक्ल ध्यान। यह शैलेशी-अर्थात् शैलेश मेरु पर्वत के समान सर्वथा अकम्प, अचल आत्मस्थिति है। इसे समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान कहते हैं। सूत्र ७४-गति दो प्रकार की होती है-१. ऋजु गति, २. वक्र गति। मुक्त आत्मा का ऊर्ध्वगमन ऋजु श्रेणी अर्थात् समश्रेणी से होता है। यह एक समय में सम्पन्न होती है। गति के अनेक भेद हैं। स्पृशद्गति, अस्पृशद् गति आदि। जीव जब परमाणु पुद्गलों व स्कन्धों को स्पर्श करता हुआ गति करता है, उस गति को स्पृशद् गति कहते हैं। मुक्त जीव अस्पृशद् गति के ऊपर जाते हैं। अस्पृशद् गति के अनेक अर्थ हैं वृहद्वृत्ति के अनुसार अर्थ है-"जितने आकाश प्रदेशों को जीव यहाँ अवगाहित किये रहता है, उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता हुआ गति करता है, उसके अतिरिक्त एक भी आकाश प्रदेश को नहीं छूता है। अस्पृशद् गति का यह अर्थ नहीं कि मुक्त आत्मा आकाश प्रदेशों को स्पर्श ही नहीं करता। आचार्य अभयदेव के (औपपातिक वृत्ति) अनुसार अस्पृशद्गति का अर्थ है-"अन्तरालवर्ती आकाश प्रदेशों का स्पर्श किये बिना यहाँ से ऊर्ध्व मोक्ष स्थान तक पहुँचना। उनका कहना है कि मुक्त जीव आकाश के प्रदेशों का स्पर्श किये बिना ही ऊपर चला जाता है। यदि वह अन्तरालवर्ती आकाश प्रदेशों को स्पर्श करता जाये तो एक समय जैसे अल्पकाल में मोक्ष तक कैसे पहुँच सकता है? नहीं पहुँच सकता। __ आवश्यक चूर्णि के अनुसार अस्पृशद्गति का अर्थ है-मुक्त जीव एक समय में ही मोक्ष में पहुँच जाता है। वह अपने ऊर्ध्व गमन काल में दूसरे समय को स्पर्श नहीं करता। मुक्तात्मा की यह समश्रेणि रूप सहज गति है। इसमें मोड़ नहीं लेना होता। अतः दूसरे समय की अपेक्षा नहीं है। (उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण; साध्वी चन्दना जी) 388 848083838603005 Salient Elucidations Maxim 7-Ladder of spiritual virtuous thought current (karana-guna-śrenim)- This word denotes the spiritual development, meaning annihilation of karmas beginning from the state of apūrvakaraņa. Karana is pure thoughts of soul. Eighth soul purification stage is apūrvakarana. At this stage the thoughts of soul are so much pure, as never has been before so it is called apūryakarana. The infinite microparticled infatuation karma-substance, which to rise in further moments, bring them to present moment to destroy is the spiritual process of thought-purification. In the first moment innumerable-time more micro-particles of infatuation karmas are destructed, in the second moment innumerable-time inicro-particles of infatuation karmas are destructed than that of first moment, and this process goes on with its full velocity from first moment to the time period of 48 minutes (one muhurta). Here the moment meant infinite part of second which is indivisible. Ladder of spiritual-virtuous thought current is also called ladder of spiritual thought current perfectly capable to finally exhaust the vitiating karmas (ksapaka śreni), It begins from eighth soul purication stage (gunasthāna). There are two processes for destructation of infatuation karma. By which the infatuation karma subdues by and by and completely subdues for the time less than 48 minutes, that is called still ladder (upsama śreni) and in which the infatuation karma destructing by and by and totally exhausts, it is destructing ladder (ksapaka śren!), thereby (by this ladder) omniscience is obtained. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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