Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 465
________________ ३६३] एकोनत्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र praise, putting forth virtues, devotion and respect of teachers, he purifies the extreme existence of liberation. He does all the acts of humility and makes other many to be disciplined. सूत्र ६ - आलोयणाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? आलोयणाए णं माया - नियाण-मिच्छादंसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणन्त संसारवद्धणाणं उद्धरणं करेई । उज्जुभावं च जणयइ । उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुंसगवेयं च न बन्धइ । पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ ॥ सूत्र ६ - ( प्रश्न) भगवन् ! आलोचना (गुरुजनों के समक्ष अपने दोष स्पष्ट स्वर में व्यक्त करना) से जीव को क्या प्राप्त होता है ? (उत्तर) आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले तथा अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले माया ( छल-कपट ), निदान ( तप आदि की विषय भोग सम्बन्धी फल भोगाकांक्षा) और मिथ्यादर्शन शल्य (कांटों) को निकाल कर फेंक देता है ( उखाड़ देता है)। ऋजुभाव (सरलता) को प्राप्त होता है। ऋजुभाव प्रतिपन्न जीव माया रहित होता है। वह स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का बन्ध नहीं करता और पूर्ववद्ध की निर्जरा करता है । Maxim 6. (Q). Bhagawan ! What does the soul attain by confession of his own slips (sins) before teacher in clear words ? (A). By confession his own slips (sins) before teacher in clear words, he uproots the spiritual thorns, which enhance the world and obstruct way of salvation-the deceit, volition (desire of worldly pleasures as a fruit of penance etc., ) and wrong faith. Attains simplicity. By simplicity he becomes devoid of deceit. Whereby he does not accumulate the karmas which are responsible to take birth as a woman or an eunuch and annihilates if these are bound formerly. सूत्र ७ - निन्दणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? निन्दणयाए णं पृच्छाणुतावं जणय । पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेढिं पडिवज्जइ । करणगुणसेटिं पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ ॥ सूत्र ७ - ( प्रश्न ) भगवन् ! निन्दना (स्वयं के दोषों का पश्चात्ताप) से जीव को क्या (फल) प्राप्त होता है ? (उत्तर) निन्दना ( निन्दा ) से पश्चात्ताप होता है और पश्चात्ताप द्वारा होने वाली विरक्ति से करण-गुणश्रेणि प्राप्त करता है । करण- गुणश्रेणि प्राप्त अनगार (साधु) मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। Maxim 7. (2). Bhagawan ! What does the soul obtain by self repentance of his own sins? (A). By repenting for his sins the soul obtains remorse and through remorse he attains the ladder of spiritual thoughts, which is virtuous. The mendicant opulent with virtuous spiritual current destroys the infatuation karma. सूत्र ८ - गरहणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ । अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहिंतो जोगेहिंतो नियत्तेइ । पसत्थजोग- पडिवन्ने य णं अणगारे अणन्तघाइपज्जवे खवेइ ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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