Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 464
________________ on सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र एकोनत्रिंश अध्ययन [३६२ Maxim 3-(Q). Bhagawan! What does the soul get by disgust towards worldly objects? (A). By disgust towards worldly objects soul soon becomes apathetic to the pleasures pertaining god-men-animals. Disinclined to all amusements. Thereby he ceases to engage in any undertaking. Renouncing the undertakings he discards the path of world and takes the path of salvation. सूत्र ४-धम्मसद्धाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ । अगारधम्मं च णं चयइ । अणगारे णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ, अव्वाबाहं च सुहं निव्वेत्तइ ॥ सूत्र ४-(प्रश्न) भगवन् ! धर्मश्रद्धा से जीव को क्या उपलब्ध होता है ? (उत्तर) धर्मश्रद्धा से जीव (साता वेदनीय कर्म से प्राप्त) साता-सुखों की आसक्ति से विरक्त होता है। अगार धर्म (गृहस्थ धर्म) का त्याग करता है। अनगार बनकर जीव छेदन-भेदन आदि शारीरिक तथा संयोग आदि मानसिक दुःखों का विच्छेद (विनाश) कर देता है और अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है। Maxim 4. (Q). Bhagawan ! By putting faith in religion, what does the soul obtain? (A). By putting faith in religion, soul becomes indifferent to the pleasures produced by auspicious emotion evoking karmas. Renounces the religion of a householder. Becoming quit-home mendicant he puts an end to bodily agonies of cutting-piercing and mental sufferings of painy unions and attains unrestricted beatitude. सूत्र ५-गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं विणयपडिवत्तिं जणयइ । विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देव-दोग्गईओ निरुम्भइ । वण्ण-संजलण भत्ति-बहुमाणयाए मणुस्स-देवसोग्गईओ निबन्धइ, सिद्धिं सोग्गई च विसोहेइ । पसत्थाइं च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाइं साहेइ । अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ ॥ सूत्र ५-(प्रश्न) भगवन् ! गुरु तथा साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव क्या (फल) प्राप्त करता है? (उत्तर) गुरु तथा साधर्मिक की शुश्रूषा (सेवा) करने से जीव विनय प्रतिपत्ति को प्राप्त करता है। विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवाद आदि रूप आशातना नहीं करता। इससे वह नरक, तिर्यंच योनि, और देव-मनुष्य संबंधी दुर्गति का निरोध कर देता है। वर्ण (श्लाघा), संज्वलन (गुणों का प्रकाशन), भक्ति और बहुमान से मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति का बन्ध करता है और श्रेष्ठ गति स्वरूप सिद्धि को विशुद्ध करता है। विनयमूलक सभी प्रशस्त (उत्तम) कार्यों को साधता (करता) है। बहुत से अन्य जीवों को भी विनयवान बनाने वाला होता है। ___Maxim 5. (Q). Bhagawan ! What does the soul attain by servitude to preachers and coreligionists? (A). By servitude to preachers and co-religionists the soul obtains discipline. Being disciplined he shows no disrespect to teachers. Therely be checks the ill-existences of deities (gods), men, animal and hell. He binds the good existences of man and gods by zealous Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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