Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 406
________________ ain सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र चतुर्विश अध्ययन [३०८ - संरम्भ-समारम्भे, तु आरम्भे य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई ॥२१॥ (१) सत्या (सच) (२) मृष (झूठ) (३) सत्यामृषा (सत्य और झूठ मिश्रित) (४) असत्यामृषा ( न सच, न झूठ-लोक व्यवहार) मनोगुप्ति के ये चार भेद हैं ॥२०॥ यतनायुक्त यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए मन का निवर्तन-निरोध करे ॥२१॥ (1) Truth (2) falsehood (3) truth and untruth mixed and (4) neither truth nor untruth-only behavioural-these are four kinds of mind-restraint. (20) A zealous sage prevents his mind from wishing to cause misery, thought to cause misery and desire to cause destruction. (21) २-वचन गुप्ति सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, वइगुत्ती चउव्विहा ॥२२॥ संरम्भ-समारम्भे, आरम्भे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, नियतेज्ज जयं जई ॥२३॥ (१) सत्या (२) मृषा (३) सत्यामृषा (४) असत्यामृषा-वचनगुप्ति के ये चार प्रकार हैं ॥२२॥ यतनायुक्त यति संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए वचन का निवर्तन-निग्रह करे ॥२३॥ These four kinds of speaking restraint-(1) truth (2) falsehood (3) truth-untruth mixed and (4) neither truth nor untruth-only behavioural. (22) A zealous monk prevents his words from wishing misery, meaning misery and destruction. (23) ३-कायगुप्ति ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघण-पल्लंघणे, इन्दियाण य झुंजणे ॥२४॥ संरम्भ-समारम्भे, आरम्भम्मि तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु, नियतेज्ज जयं जई ॥२५॥ खड़े रहने में, बैठने में, लेटने में या करवट बदलने में, गड्ढे आदि को लांघने में, साधाण रूप से चलने में और इन्द्रियों के प्रयोग में-॥२४॥ संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ में प्रवृत्त होती हुई काया (शरीर) को यतना सम्पन्न यति यतनापूर्वक निवर्तमान-निवृत्त करे ॥२५॥ Standing, sitting, lieing, jump to cross a ditch, walk and utilizing the senses-(24) A zealous monk prevents his body intended to be injurious, to be injurious and the cause of destruction for others. (25) एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ॥२६॥ For Private & Personal Use Only Jain Sudion International www.jainelibrary.org

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