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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना के भेद, गुणस्थानों के गमनागमन आदि विषयों को भी कवि ने स्पष्ट किया है। सातों नरक, सोलह स्वर्ग, चौरासी लाख योनियाँ, तिरेसठ कर्म - प्रकृतियाँ, आस्रव, उदय, उदीरणा आदि की एक तालिका-सी दी है, जो कवि के असाधारण ज्ञान एवं विद्वत्ता का परिचायक है।
104 पदों वाली इस कृति में प्रत्येक पद पृथक्-पृथक् विषय को लिये हुए हैं । इस तरह प्रत्येक छन्द स्वयं में स्वतंत्र एवं पूर्ण है तथा उसे किसी दूसरे पूर्वापर छंद की अपेक्षा नहीं है ।
शतक की परंपरा के अनुसार शतक काव्य में एक ही विषय पर एक ही जाति के 100 या उससे अधिक छंद होना चाहिए, परन्तु द्यानतराय के चर्चाशतक में ऐसा नहीं है; अतः उसे शतक काव्य न मानकर प्रघट्टक काव्य मानना चाहिए । फिर भी कवि के विषय एवं वर्णन के अनुसार चर्चाशतक-शतक परम्परा की महत्त्वपूर्ण कृति है ।
उपदेश शतक - यह 121 पद्यों का स्तुति, नीति एवं वैराग्य को प्रदर्शित करने वाला मुक्त काव्य है । इस कृति में भी द्यानतराय ने 100 से अधिक पद्य रचे हैं। इस काव्य में प्रत्येक छन्द स्वयं में स्वतन्त्र एवं पूर्ण है तथा उसे किसी दूसरे पूर्वापर छन्द की अपेक्षा नहीं है। इसमें द्यानतराय ने जैनधर्म और उससे सम्बन्धित स्तुति, नीति, उपदेश एवं वैराग्य आदि का सुन्दर वर्णन किया गया है। इसमें दिए गए विषय का परिचय निम्नानुसार है प्रथम छन्द में तीर्थंकर स्तुति फिर चार अनन्त चतुष्टय सहित, चार घातिकर्म रहित, चार मुखवाले अरहन्त परमात्मा को नमन किया है। इस प्रकार क्रमशः सर्वज्ञ - परमात्मा, सिद्ध भगवान, आदिनाथ भगवान, दर्शन की स्तुति, वर्तमान चौबीसी एवं साधुओं, पंच परमेष्ठियों के वर्णन में 25 पद मंगलाचरण के रूप में लिखे गये हैं ।
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26 से 29वें पद में व्यवहार हितोपदेश का वर्णन किया है। 30 से 34वें पद में संसार की असारता का वर्णन किया है। 35वें श्लोक में धर्म की महिमा का वर्णन, 36 से 39वें पद में अपने स्वरूप को भूलकर भटकने की बात की गई है । 40 से 43वें पद में द्यानतरायजी ने अपने दुःख का वर्णन किया है। 44 से 45वें पद में उपदेश दिया गया है। 46वें पद में जीव के वैरी का वर्णन एवं 47वें पद में वैर दूर करने का उपाय बताया है। 48 से 49वें पद में नरक - निगोद के दुःख का वर्णन एवं निगोद के छत्तीस कारणों का वर्णन किया है। 50 से 51वें पद में नरक दुःख का वर्णन, 52 से 53वें पद