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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 149 होता है; क्योंकि उसमें चेतना के परिणामों को पुण्य-पाप से छुड़ाकर ज्ञानस्वभाव में ही स्थिर करना कहा है। मैं ज्ञानस्वरूप ज्ञाता हूँ, मेरे ज्ञान में कोई परद्रव्य इष्ट-अनिष्ट नहीं है।
धर्म का स्वरूप दशलक्षण रूप है। इन दश चिह्नों के द्वारा अंतरंग धर्म जाना जाता है। उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशौच, उत्तमसंयम, उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिंचन्य, उत्तमब्रह्मचर्य-ये दश धर्म के लक्षण हैं।
धर्म तो वस्तु का स्वभाव है, स्वभाव को ही धर्म कहते हैं। लोक में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ते हैं। यदि स्वभाव का नाश हो जाये तो वस्तु का अभाव हो जाये, किन्तु ऐसा नहीं होता है।
___ आत्मा एक पदार्थ है, उसका स्वभाव क्षमादि रूप है। क्रोधादि कर्मजनित उपाधि है, आवरण है। क्रोध नाम की कर्म की उपाधि का अभाव होने पर क्षमा नाम का आत्मा का स्वभाव स्वयं ही प्रकट हो जाता है। इसी प्रकार मान के अभाव से मार्दव गुण, माया के अभाव से आर्जव गुण, लोभ के अभाव से शौच गुण इत्यादि जो आत्मा के गुण हैं, वे कर्म के अभाव से स्वयमेव प्रकट होते हैं। जो ये उत्तम क्षमादि आत्मा के स्वभाव हैं; वे मोहनीय कर्म के भेद क्रोधादि कषायों द्वारा अनादिकाल से आच्छादित हो रहे हैं। कषायों के अभाव से क्षमादि आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक क्रोधादि का नहीं होना ही उत्तम क्षमादि धर्म है।
उपर्युक्त दशधर्मों का वर्णन द्यानतराय ने इस प्रकार किया है -
(1) उत्तम क्षमा धर्म - क्रोध बैरी का जीतना वहीं उत्तम क्षमा धर्म है। क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में जो क्रोध के अभावरूप शान्ति-स्वरूप पर्याय प्रकट होती है, उसे भी क्षमा कहते हैं। अर्थात् आत्मा में क्रोध कषाय के अभावरूप जो पर्याय प्रगट होती है, वही उत्तम क्षमा धर्म कहलाता है। द्यानतरायजी ने भी अपने काव्य में उत्तम क्षमा धर्म का वर्णन इसी प्रकार किया है -
पीडै दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ।। उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस पर भव सुखदाई। गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो।।