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184 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना भाषा से है। जहाँ एक ओर यह भाषा बोलचाल की भाषा थी, वहीं दूसरी ओर साहित्य की भी भाषा थी। इस भाषा को अल्पबुद्धि भी पढ़ सकते हैं। - इस प्रकार कवि द्वारा प्रयुक्त भाषा वस्तुतः आगरा, ग्वालियर आदि विशाल हिन्दी भाषी प्रदेश की लोकभाषा व साहित्यिक भाषा 'ब्रजभाषा' ही है; क्योंकि उस समय लोक एवं साहित्य की प्रचलित भाषा ब्रजभाषा ही थी। यद्यपि कवि द्वारा प्रयुक्त भाषा ब्रजभाषा ही है, फिर भी उसमें अनेक विदेशी भाषाओं के शब्द दिखायी देते हैं। साथ ही कहीं-कहीं स्थानीय भाषा के शब्द (देशी शब्द) तथा खड़ी बोली की समीपता भी दृष्टिगत होती है।
यद्यपि मूलतः कवि कृत रचनाओं की भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा है, तथापि वह भाषा सभी रचनाओं में एक जैसी नहीं है। उसमें उत्तरोत्तर विकास के दर्शन होते हैं। उनकी भाषा में बहुतायत से देशी-विदेशी भाषाओं के अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है। शब्दों का यह प्रयोग कहीं तो अपनी प्रकृति के अनुसार ज्यों का त्यों किया गया है तो कहीं हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुसार यथेच्छ परिवर्तन करके किया गया है। कवि की भाषा का पूर्ण विकसित और परिमार्जित प्रौढ़रूप चरचाशतक एवं द्यानतविलास कृतियों में मिलता है।
द्यानतराय के समय में ब्रजभाषा एक विशाल भूभाग की भाषा बन चुकी थी। उसका साहित्य में पर्याप्त प्रयोग होने लगा था। साथ ही राजदरबारों में भी उचित सम्मान दिया जाने लगा था। वह देश की समस्त भाषाओं में लोकभाषा के रूप में शीर्ष स्थान पर प्रतिष्ठित होने की अधिकारिणी बन गयी थी। इसलिए द्यानतराय ने अपने साहित्य की रचना ब्रजभाषा में ही की। द्यानतराय के साहित्य की भाषा सरल ब्रजभाषा है। यह ब्रजभाषा की उन सब विशेषताओं से युक्त है, जो ब्रजभाषा में पायी जाती हैं। द्यानतराय द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा की कतिपय विषेशतायें निम्नलिखित हैं -
(1) आकारान्त के स्थान पर. ओकारान्त या औकारान्त का प्रयोग दिखायी देता है। यथा आयो, बड़ो, भलो आदि।
(2) ए के स्थान पर ऐ का प्रयोग किया गया है। जैसे- लहै, सुनै, जाने, धरै आदि। . (3) संयुक्त वर्गों को स्वर विभक्ति के द्वारा अलग करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। यथा-परवीन, निरधार, सत् संगति, कल्पित, विसतार, शबद, परसिद्ध, पारस, जनम, पदारथ आदि ।