________________
192 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना जिनका कवि द्वारा सर्वत्र ही प्रयोग किया गया है। यथा -
दीपक की ज्योति प्रकाश, तुम तन माहिं लस ।।
7. अधिकरण कारक - अधिकरण कारक के चिह्न माहिं, में, मैं, पै, पर द्यानत साहित्य में सर्वत्र ही प्राप्त होते हैं। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के प्रयोग में शब्द पर ए, ऐ की मात्रा लगी हुई मिलती है। यथा -
एक इक शीश पर एक जिनमन्दिरं।
ऊँचे पाँच शतक पर भाखै, चारों नन्दन वन अभिलाखै ।।15 8. सम्बोधन कारक – सम्बोधन कारक के लिए द्यानत साहित्य में है, रै, अरे, वीर, वीरा, हे, री भाई - इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार के सम्बोधन में नीतिपरक एवं भक्तिपूर्ण चर्चा हुई है। यथा -
देखौ भाई आतम राम विराजै। कर कर आतमहित रे प्राणी।।७ क्रियापद - द्यानतराय के साहित्य में प्रयुक्त क्रियापद निम्नलिखित हैं -
(1) वर्तमान कालिक क्रिया - ठाड़े हैं, वन्दौं, कहो, प्रणमानि, करे हैं। .. (2) भूतकालिक क्रिया - दीनी, कीनी, लीनी, खोयो, रोयो, दियो, गयो, भई, हुआ, आयी, आया, पाई, पाया, भये, देख्या, पेख्या, हस्यो, भज्यो, मिल्या। __(8) भविष्यत् कालिक क्रिया - मिलेगा, पावेगा, पूछते हैं, हेंगे, लेंगे, होयेगी आदि हैं।
(4) आज्ञार्थक क्रियाएँ - तज, भज, हाल, जोर, छोर, कीजे, लीजे, विचारौं, सिधारौं, बिसारौं, दीजिए, सुनें, सुनहूँ।
संस्कृत के क्त्वा प्रत्यय से बने हुए रूपों को कवि द्वारा इ, य लगाकर बनाया गया है। जैसे - आइ, आय, धरि, मानी, जानी।
द्यानत साहित्य में व्यवहृत क्रियाओं का रूप ब्रजभाषा, खड़ी बोली तथा कन्नौजी से मिलता हुआ पाया जाता है, तथापि विश्लेषण की दृष्टि से देखने पर प्रायः ब्रजभाषा का प्रभाव पदों में तथा खड़ी बोली क्रियाओं का प्रभाव नीति सम्बन्धी कवित्त, सवैया, दोहा नामक छन्दों में पाया जाता है। संस्कृत के विभक्ति युक्त रूप भी कतिपय क्रियाओं में परिलक्षित होते हैं। यथा -
नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्र अधीसं, शतेन्द्रं सु पूजै भजै नाय शीशं।"
द्यानत साहित्य में संयुक्त क्रियाओं का भी प्रयोग हुआ है। इस प्रकार कवि का.भाषा व्यवहार प्राचीनता और नवीनता का समन्वय करने वाला तथा विविध रूप वाला रहा है। दूसरे शब्दों में द्यानतराय ने हिन्दी भाषा के समग्र