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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना काव्य में रोचकता बढ़ जाती है । वह आकर्षक और साथ ही प्रभावशाली हो जाता है। अलंकारों से वर्ण्य विषय को स्पष्ट और सुबोध बनाने में भी सहायता मिलती है। इस प्रकार अलंकारों की उपादेयता असंदिग्ध है। काव्य में उनका प्रयोग वांछनीय है । प्रसिद्ध जैन विद्वान डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री काव्य में अलंकारों की बड़ी उपयोगिता मानते हैं। वे कहते हैं- 'अलंकार अनुभूति को सरस और सुन्दर बनाते हैं । कविता में भाव प्रवणता तभी आ सकती है, जब रूप योजना के लिए अलंकृत और सँवारे हुए पदों का उपयोग किया जाये । 40
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सुन्दर भावों की सरस अभिव्यक्ति के लिए श्रेष्ठ अलंकारों की योजना आवश्यक है । "व्यावहारिक धरातल पर अलंकारों के द्वारा अपने कथन को कवि या लेखक श्रोता या पाठक के मन में भीतर तक बैठाने का प्रयत्न करता है । बात को बढ़ा-चढ़ाकर उसके मन का विस्तार करता है । बाह्य वैषम्य आदि का नियोजन कर आश्चर्य की उद्भावना करता है तथा बात को घुमा-फिराकर वक्रता के साथ कहकर पाठक की जिज्ञासा को उद्दीप्त
करता है 41
द्यानतराय ने बलात् अलंकारों को लाने का प्रयास नहीं किया, अपितु उनकी रचनाओं में अलंकार स्वभावतः आ गये हैं । द्यानतराय सहित प्रायः, सभी जैन कवियों ने भावगत सौन्दर्य को अक्षुण्ण रखते हुए स्वाभाविकरूप से अलंकारों का प्रयोग किया है। इस सम्बन्ध में श्री नेमिचन्द ज्योतिषाचार्य लिखते हैं कि हिन्दी जैन कवियों की कविता कामिनी अनाड़ी राजकुलांगना के समान न तो अधिक अलंकारों के बोझ से दबी है और न ग्राम्यबाला के समान निराभरणा ही है। इसमें नागरिक रमणियों के समान सुन्दर उपयुक्त अलंकारों का समावेश किया गया है | 12
द्यानतराय के साहित्य में प्रयुक्त अलंकार निम्न हैं
(1) अनुप्रास - अनुप्रास में वर्ण या वर्णसमूह अनेक (दो या अधिक) बार आता है, कभी वर्ण की जगह शब्द या शब्दांश भी आता है । द्यानतराय के काव्य में अनुप्रास के अनेक उदाहरण हैं -
तात भात भ्रात नात, सात घात जात गाज ।
हम सौ निराल सदा, चित्त क्यों सुमाय है ।। 43 इन्द ओ फनिन्द वद जच्छ जो नरिंद विंद |