Book Title: Adhyatma Chetna
Author(s): Nitesh Shah
Publisher: Kundkund Kahan Tirth Suraksha Trust

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Page 216
________________ 205 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना साहित्यकार अपनी काव्यकला में प्रतीकों की उद्भावना करता है। हिन्दी जैन साहित्य में उपमान के रूप में प्रतीकों का प्रयोग अधिक हुआ है । विद्वानों ने प्रतीकों के दो भेद किये हैं . 1. भावोत्पादक तथा 2. विचारोत्पादक । हिन्दी जैन साहित्य में इन दोनों भेदों के शुद्ध उदाहरण नहीं मिलते हैं । सुविधा के लिए जैन साहित्य में प्रयुक्त प्रतीकों को चार भेदों में विभक्त किया जा सकता है । 1. गुण व सुखबोधक प्रतीक 2. विकार एवं दुःख बोधक प्रतीक 3. शरीर - बोधक प्रतीक 4. आत्मबोधक प्रतीक हिन्दी के जैन कवियों द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों का वर्गीकरण करते हुए डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री भी प्रकारान्तर से ऐसे ही वर्गीकरण को स्थिर करते हैं । भाव, स्वरूप तथा सामग्री के आधार पर समग्र द्यानतराय के साहित्य में व्यवहृत प्रतीकों को हम निम्नलिखित चार भागों में विभाजित कर सकते हैं. 1. सुखबोधक प्रतीक 2. दुःखबोधक प्रतीक 3. शरीरबोधक प्रतीक तथा 4. आत्मबोधक प्रतीक | इनका विस्तृत विवेचन निम्नांकित है— 1. सुखबोधक प्रतीक - यद्यपि सुख की अनुभूति एवं प्राप्ति आत्मा के आश्रय एवं अवलम्बन से ही होती है, तथापि संसारी जीव इन्द्रिय विषयों एवं भोगों में सुख की मिथ्या कल्पना कर सुख की अनुभूति कर लेता है । कवि द्यानतराय ने अपने समग्र साहित्य में मुकुट भूषन, मिठाई, मेवा, मृदंग‍, गुलाल, पिचकारी, पुण्य उदय को सुख का प्रतीक स्वीकार किया है । 2. दुःखबोधक प्रतीक्न - समस्त प्रतिकूलताएँ एवं इन्द्रियजनित असन्तुष्टियाँ दुःख का कारण हुआ करती हैं। वास्तव में तो दुःख का कारण जीव का मिथ्याज्ञान, मोह-राग-द्वेष है, जिसके कारण ही संसार दुःखरूप हो जाता है । द्यानतराय ने संसार को दुःख का कारण मानकर जलधि एवं उनके पर्यायवाची शब्द सरवर, उदधि, भव-सागर आदि को संसार का प्रतीक एवं पंछी, प्रानी" को संसारीजन का प्रतीक बताया है। 3. शरीरबोधक प्रतीक - सुख - दुःख की तरह शरीर का बोध करानेवाले अनेक प्रतीकात्मक शब्दों का व्यवहार भी द्यानतराय ने अपने साहित्य में किया है। चरखा, पिंजरा, कोंपल, तालाब, गागरे, कान्तारे आदि । इसके अतिरिक्त कवि द्वारा जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा एवं तीर्थंकर की संज्ञा का

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