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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 185 (4) संयुक्त वर्णों को संयुक्त और पृथक् दोनों रूपों में लिखा गया हैभरम और भ्रम, पदारथ और पदार्थ, परमान और प्रमान, विकलप और विकल्प आदि।
(5) मुख-सुख या उच्चारण सुविधा के कारण संयुक्त वर्गों में से एक का लोप कर दिया है। स्तुति को थुति, चेत्य को चैत, स्थान को थान, द्युति का दुति, स्थिति को थिति, स्वरूप को सरूप, स्तम्भ को थंभ, दुष्ट को दुठ, स्थिरता को थिरता आदि।
(6) प्रायः संयुक्त वर्णों का सरलीकरण करने के लिए आधे वर्ण को पूरा करके रखा गया है, जिसमें उच्चारण सम्बन्धी सुविधा हुई है। यथा - मारग, सरवारथ, शुकल, सरधान, सुमरन, विघन, अलप आदि। __चूंकि द्यानतराय की भाषा ब्रजभाषा है, इसलिए उन्होंने दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करते समय उनकी ध्वनियों को अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लिया है। ध्वनियों का यह परिवर्तन दृष्टव्य है-ष को स में बदलना। जैसे-विलास, सीस, ससि, सुन्न, निरास, सारद, सर आदि।
णको न में परिवर्तित करना - प्रान, तारन, गुन, तुन, चरन, संरन, पुरान, पुण्य, प्रानी, वानी, दशलाछनी आदि।
क्ष के स्थान पर छ को प्रयोग करना - पंछी, छीन, छिन, लछमी, परतच्छ, छोभ, लच्छन इत्यादि। . कहीं-कहीं 'व' वर्ण का कार्य 'ओ' और 'उ' की मात्रा से निकाला गया है। जैसे-विभौ (वैभव) भौन (भवन) पौन (पवन) परभौ (परभव) गौन (गवन) धुजा (ध्वजा) धुनि (ध्वनि) सुरग (स्वर्ग) आदि ।
बदले वर्णों वाले शब्दों का द्यानतराय के साहित्य में बहुलता से प्रयोग हुआ है। यथा-जम (यम) परजाय (पर्याय) जोवन, (यौवन) लच्छन (लक्षण) लच्छमी (लक्ष्मी) उपगारी (उपकारी) कारिमा (कालिमा) लोयन (लोचन) लाह (लाभ) रिषभ (ऋषभ) इत्यादि।
द्यानतराय के साहित्य में मात्रा बड़े हुए शब्द भी पाये जाते हैं। यथा - जिहान (जहान), दिना (दिन) लागे (लगे) नीसतारे (निसतरे) छिन (क्षण) पिछताया (पछताया) इत्यादि।
1. पूजन साहित्य की भाषा-द्यानतराय कृत पूजनों की भाषा सरल एवं प्रभावात्मक है। मधुरता और सरसता उसमें सर्वत्र विद्यमान है। प्रसादगुण उसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वह कोमलकान्त पदावली समन्वित है। शब्दों