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178 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, मिथ्या तमके हरना रे। कहा क% ते अंध पुरुष को, जिन्हें उपजना मरना रे।। द्यानत जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे। सोऽहं ये दो अक्षर जपकै, भव-जल पार उतरना रे।।17
इस प्रकार द्यानतरायजी कहते हैं कि सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणी का मूल जो आत्मा का अनुभव है, तुम उसे ही प्राप्त कर लो। यह आत्मानुभव अपूर्व कला है, संसाररूपी ताप को शान्त करने के लिए चन्दन की शलाका है। अतः इस जीवन में एकमात्र आत्मानुभवरूप अपूर्वकला को ही सीख लो, क्योंकि जब तक भेदज्ञान नहीं होता, तब तक जीवन-मरण करना पड़ेगा, मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को हरने के लिए सारे ग्रन्थ दीपक के समान हैं। द्यानतरायजी कहते हैं कि जो जीव सुख चाहते हैं, उन्हें सोऽहं अर्थात् मैं ही हूँ, वह ऐसा ज्ञान-श्रद्धान करके भवसागर पार करना चाहिए।
द्यानतरायजी बार-बार यही प्रार्थना करते हैं कि वह दिन कब आयेगा, जब मैं सारे विभाव भाव को छोड़कर भेदविज्ञान पूर्वक आत्मानुभव करूँगा। वे लिखते हैं कि -
मोहि कब ऐसा दिन आये है।। टेक ।। सकल विभाव अभाव होहिंगे, विकलपता मिट जाय है। . यह परमातम यह मम आतम, भेद बुद्धि न रहाय है।। औरन की का बात चलावै, भेद विज्ञान पलाय है। जानै आप आप मैं आपा, सो व्यवहार विलाय है। नय-परमान निखेपन माहीं, एक न औसर पाय है।। दरसन ज्ञान चरन के विकलप, कहो कहाँ ठहराय है। द्यानत चेतन चेतन द्वै है, पुद्गल पुद्गल थाय है।।मोहि।।108
उसी प्रकार जब स्वानुभव होता है तो क्या-क्या होता है, उसको . व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं कि -
अब हम आतम को पहिचान्यौ।। टेक।। जब ही सेती मोह सुभट बल, खिनक एक में मान्यो। राग विरोध विभाव भजे झर, ममता भाव पलान्यौ ।। दरसन ज्ञान चरन में चेतन, भेद रहित परवान्यौ । सिहि देखें हम अवर न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यो।