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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 177 हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जग का व्यवहारा। तन सम्बन्धी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ।। पुण्य · उदय सुख बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पुण्य-पाप दोऊ संसारा, मैं सब देखन जाननहारा।। मैं तिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संयोग भया बहुः मेला। थिति पूरी कर खिर खिर जाहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं।। राग भाव ते सज्जन माने, द्वेषभाव ते दुर्जन जाने। राग-द्वेष दोऊ मम नाहीं, 'द्यानत' मैं चेतन पद माहिं। 1104
इसी प्रकार पुण्य और पाप के भेद को छोड़कर दोनों को एक ही मानकर दोनों को छोड़कर मोक्ष को पाने की बात करते हुए वे लिखते हैं -
मिथ्याभाव मिथ्या लखौ ग्यानभाव ग्यान लखौ, कामभोग भावनसौ काम जोरजारिकै । परकौ मिलाप तजो आपनपौ आप भजौ, पाप-पुण्य भेद छेद एकता विचारिकै।। आतम अकाज करै आतम सुकाज करै, पावै भवपार मोक्ष एवौ भेद धारिक। भातै हूँ कहत हेर चेतन चेतौ सवेर,
मेरे मीत हो निचीत एतौ काम सारिकै।।105 .... इस प्रकार पुण्य हो या पाप द्यानतराय दोनों को हेय मानते है, क्योंकि दोनों ही संसार को बढ़ानेवाले हैं संसार में भटकाने वाले हैं, अतीन्द्रिय सुख के कारण नहीं है। अतः पुण्य-पाप दोनों हेय हैं।
पाप पुण्य दोनौं बसें, दरब मांहि भ्रम नाहिं।
द्यानत कीने पाप है पुण्य अमानत माहिं। 1108 (7) स्वानुभव का वर्णन-स्वानुभव अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए द्यानतराय ने देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान तथा सात तत्त्वों के श्रद्धान के साथ-साथ भेदविज्ञान एवं आत्मानुभव को भी आवश्यक माना है।
आत्मानुभव की महिमा बताते हुए कवि द्यानतराय प्रेरणा देते हैं - आतम अनुभव करना रे भाई।। टेक।। जब लौं भेद ज्ञान नहिं उपजै, जनम मरन दुख भरना रे।। आतम पढ़ नव तत्त्व बखाने, व्रत तप संजम धरना रे। आतम ज्ञान बिना नहिं कारज, जोनी-संकट परना रे।।