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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 155 उत्तम शौच लोभ-परिहारी, सन्तोषी गुण-रतन भण्डारी। उत्तम संयम पालै ज्ञाता, नर भव सफल करै ले साता।। उत्तम तप निरवांछित पालै, सो नर करम-शत्रु को टालै। उत्तम त्याग करै जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई।। उत्तम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधि दशा विसतारे। उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै, नर-सुर सहित मुकति-फल-पावै।। .
(दोहा) करै करम की निरजरा, भव पीजरा विनाशि। अजर अमर पद को लहैं, धानत सुख की राशि।।
(6) सत्संग की चर्चा - द्यानतरायजी देव-शास्त्र-गुरु की संगति की ही वांछा रखते थे; क्योंकि ये ही सच्चे सुख को प्राप्त करने के साधन हैं। वे साधुजन की संगति के लिए इच्छा रखते हुए लिखते हैं -
- मैं साधुजन को संग चाहूँ, प्रीति तिनहीं सों करौं । ' अर्थात् मैं सिर्फ साधुओं की ही संगति चाहता हूँ और उन्हीं से प्रीति करता हूँ। . इसी प्रकार देव की संगति की चाह में वे लिखते हैं - मैं देव नित. अरहंत चाहूँ, सिद्ध का सुमिरन करौं । मैं सूर गुरु मुनि तीन पद ये, साधु पद हिरदय धरौं ।। मैं धर्म करुणामयी चाहूँ, जहाँ हिंसा रंच ना।
..मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूँ, जासु में परपंच ना।। 1 - अर्थात् मैं देवों में अरहंत को हमेशा चाहता हूँ तथा सिद्धों का स्मरण करता हूँ, मैं गुरुओं में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को हृदय में धारण करता हूँ, मैं करुणामयी धर्म की इच्छा रखता हूँ, जहाँ रंच भी हिंसा नहीं है। मैं वीतरागी शास्त्रों की कामना करता हूँ, जिनमें कि किसी प्रकार का भ्रम नहीं है।
वे गुरु के समान उपकारी किसी को भी स्वीकार नहीं करते हैं। अतः वे हमेशा गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने की वांछा रखते हुए लिखते हैं
गुरु समान दाता नहिं कोई।। टेक।। . भानु प्रकाश न नाशत जाको, सो अँधियारा डारै खोई। मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाकै नहिं होई।। .