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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना ग्यारह प्रतिमा के उपदेशी बारहु सभा सुखी अकलेशी ।। तेरह विधि चारित के दाता, चौदह मारगना के ज्ञाता | पन्द्रह भेद प्रमाद निवारी, सोलह भावन फल अविकारी । 150
जैनदर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। उस परमात्मा की दो अवस्थायें होती हैं- एक शरीरसहित जीवनमुक्त अवस्था और दूसरी शरीर रहित देहमुक्त अवस्था । प्रथम शरीरसहित जीवनमुक्त अवस्था ही सयोग केवली गुणस्थान कहलाता है । इस अवस्था में जीव यद्यपि परमात्म संज्ञा को प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु फिर भी वे तीनों योगों सहित होते हैं, इसलिए उन्हें सयोगी कहते हैं । ज्ञान तथा दर्शन के समस्त आवरणों से रहित होते हैं, इसी कारण केवली कहलाते हैं। 1
इस प्रकार जो योग सहित होते हुए केवली हैं, उन्हें सयोग केवली कहते हैं, पंचास्तिकाय की टीका में कहा गया है
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"भावमोक्षकेवलज्ञानोत्पत्तिजीवन्मुक्तोऽर्हत्पदमित्ये कार्थ "2 अर्थात् भावमोक्ष, केवलज्ञानोत्पत्ति, जीवनमुक्ति और अरहन्तपद ये सब एकार्थभावी हैं ।
जीव के गुणों का घात करनेवाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों से मुक्त हो जाने के कारण भावमोक्ष कहा जाता है। इन कर्मों से मुक्त होते ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है, जिसके फलस्वरूप वे आत्मा को, आत्मा से आत्मा में अनुभव करने लगते हैं ।
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मन, वचन और काय सहित होते हुए भी मुक्त या परमात्मा होने के कारण उन्हें जीवनमुक्त कहा जाता है। मोहादि कर्मरूपी शत्रुओं का और जन्म-मरण का हनन कर देने के कारण अरहन्त कहा जाता है।
नियमसार में केवली को 'अबन्धक' कहा गया है, क्योंकि वे जानते और देखते हुए भी इच्छा वर्तन नहीं करते | 3
बन्ध के पाँच कारणों (मिथ्यात्व, अविरति, प्रेमाद, कषाय और योग) में से इस गुणस्थान में केवल अन्तिम कारण योग रह जाता है। योगजन्य क्रियायें भी बन्ध का कारण नहीं होतीं, क्योंकि बन्ध की कारणभूत राग-द्वेष जनित प्रवृत्ति, उन क्रियाओं में नहीं पायी जाती । योगजनित इन क्रियाओं