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164 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना मोह आदि का क्षय होते हुए भी इन्द्रियों तथा शरीर की सीमाओं में ही व्यक्ति पूर्ण शान्ति का जीवन बिताता है। 69
(4) न्याय-वैशेषिक दर्शन में जीवनमुक्ति - सैद्धान्तिकरूप से जीवनमुक्ति के आदर्श को स्वीकार न करने पर भी न्याय-वैशेषिकों ने एक ऐसी अवस्था को माना है, जहाँ तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेने पर संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, परन्तु प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिए शरीर की आवश्यकता रहती है। इस अवस्था में संसार के प्रति दृष्टिकोण पूर्णतः बदल जाता है।
(5) सांख्य दर्शन में जीवनमुक्ति- सांख्य भी वेदान्त की तरह दोनों मुक्तियों को स्वीकार करता है। जिस प्रकार कुम्भकार द्वारा चक्र रोक देने पर भी वह चक्र पूर्व संस्कारवश कुछ समय तक घूमता रहता है, उसी प्रकार जीवनमुक्त पुरुष प्रारब्ध कर्मों को समाप्त करने के लिए, कुछ समय तक सशरीर स्थिर रहता है; परन्तु उस समय शरीर द्वारा किये कर्म, उसके कर्म बन्ध का कारण नहीं होते हैं।" ...... (6) वेदान्त दर्शन में जीवनमुक्ति- आत्मज्ञान हो जाने पर अन्य किसी भी ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती और न ही अज्ञान रहता है, जिसका नाश करना शेष हो। आत्मज्ञान के होते ही देहाभिमानादि स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जिससे जीवितावस्था में ही आत्मविज्ञ को अशरीरत्व की प्राप्ति हो जाती है। शरीर की स्थिति केवल प्रारब्ध भोग के लिए ही होती है, आगामी बंध के लिए नहीं। जैसे भुना हुआ अन्न-कण भोग के लिए तो उचित होता है, परन्तु उसे भूमि में डालकर फल प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैन मत में आत्मज्ञान की इस स्थिति को केवलज्ञान कहा जाता है। केवलज्ञान के ‘पश्चात् जब तक शरीर रहता है, तब तक उस अवस्था को सयोग केवली कहा जाता है, जो जीवनमुक्त का ही पर्याय है।
जीवनमुक्त अवस्था में जीव अपने लक्ष्य के साथ एकाकार हो जाता ' है, परन्तु फिर भी देहपात उसी समय नहीं होता। समूल उखड़े हुए वृक्ष का पूर्ण नाश जिस प्रकार सूख जाने पर ही होता है, आत्मवेत्ता के शरीर का क्षय भी उसी प्रकार प्रारब्ध (उदय) कर्मों के निवृत हो जाने पर ही होता है। द्यानतराय ने भी जीवनमुक्त को इन्हीं वाक्यों में परिभाषित किया है -
अखय अनन्ती सम्पति बिलसै, भव तन भोग मगन ना। द्यानत ता ऊपर बलिहारी, सोई जीवन मुकत भना।।