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170 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
छहौं द्रव्य नव तत्त्व ते रे, न्यारो आतम राम। द्यानत ने अनुभव करें रे, ते पावै शिव धाम ।। 87 __ आत्मा को सिद्धक्षेत्र में विराजमान सिद्ध के समान बताते हुए वे
लिखते आत्मा को सिद्ध
अब हम आतम को पहिचाना। जैसा सिद्ध क्षेत्र में राजै, तैसा घट में जाना।। देहादिक परदव्य न मेरे, मेरा चेतन बाना। द्यानत जो जानै सो सयाना, नहिं जानै सो अयाना।। 2 1188
आत्मा की महिमा गाते हुए वे लिखते हैं - आतम रूप अनुपम है घट माहिं विराजै। जाके सुमरन जाप सौं, भव भव दुख भाजै हो।। आतम.||
केवल दरशन ज्ञान मैं, थिरता पद छाजै हो। उपमा को तिहुँ लोक में, कोउ वस्तु न राजै हो।। सहै. परीषह भार जो, जु महाव्रत साजै हो। ज्ञान बिना शिव ना लहै, बहु कर्म उपाजै हो।। तिहुँ लोक तिहुँ काल में, नहि और इलाजै हों। द्यानत ताको जानिये, निज स्वारथ काजै हो।।89 आत्मा के भावों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि - चेतन के भाव दोय ग्यान औ अग्यान जोय, एक निजभाव दूजौ पर उतपात है। ताते एक भाव गहौ दूजौ भाव मूल दहौ, जातै सिवपद लहौ यही ठीक बात है। भावकौ दुखायौ जीव भावही सौं सुखी होय, भावही कौ फेरि फे रे मोखपुर जात है। यह तौ नीको प्रसंग लोक कहैं सर, आगहीको दाघौ अंग आग ही सिरात है।
इस प्रकार द्यानतराय ने आत्मा की महिमा गाकर उसे प्राप्त कर मोक्ष सुख को प्राप्त करने की बात कही है; क्योंकि आत्मा को जानने से ही परम्परा से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।
(4) रत्नत्रय का प्रतिपादन – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहो जाता है। मुक्ति की साधना के लिए ये तीनों आवश्यक हैं।