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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 173
(2) सम्यग्ज्ञान- ज्ञान तो हर जीव में किसी न किसी प्रकार से रहता ही है, पर जब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता, तब तक वह ज्ञान भी अज्ञान या मिथ्याज्ञान ही रहता है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् ही वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है। ज्ञान पाँच प्रकार के होते है; मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । जो ज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों एवं मन के सहयोग से होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। जिसमें शब्द एवं अर्थ की पर्यालोचना रहती है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। जिस ज्ञान में मन और इन्द्रियों के सहयोग की आवश्यकता नहीं रहती, जिसके द्वारा एक निर्दिष्ट सीमा के मध्य स्थित रूपी पदार्थों को जाना जा सकता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह आत्मिक-ज्ञान है तथा जिस ज्ञान से बिना मन और इन्द्रियों की सहायता के निर्दिष्ट सीमा के मध्य स्थित प्राणियों के मनोभावों को जाना जाता है, उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। यह भी आत्मिक-ज्ञान है। जिस ज्ञान से मात्र आत्मा के द्वारा ही सम्पूर्ण लोक और अलोक के भूत, भविष्य और वर्तमानकाल के रूपी और अरूपी समस्त पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से गुण और पर्याय सहित जाना जाता है, वह केवलज्ञान है।
इसी बात को द्यानतरायजी भी कहते हैं कि -
पंच भेद जाके प्रगट, ज्ञेय प्रकाशनभान .
मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यग्ज्ञान ।। 98 सम्यग्ज्ञान की महिमा गाते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं - आप आप जानैं नियत, ग्रन्थ-पठन व्योहार।
संशय-विभ्रम-मोह बिन, अष्ट अंग गुनकार ।। सम्यग्ज्ञान-रतन मन 'भाया, आगम तीजा नैन बताया। अच्छर शुद्ध अर्थ पहिचानो, अच्छर अरथ उभय संग जानो।। जानो सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइए। तप रीति गहि बहु मान देकैं, विनय-गुन चित लाइए।। ये आठ भेद करम उछे दक, ज्ञान-दर्पण देखना। इस ज्ञान ही सों भरत रीझा, और सब पट पेखना।। 90 ... सम्यग्ज्ञान को ज्ञान सरोवर की उपमा देते हुए वे लिखते हैं कि - ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन।। टेक।। भूमि छिमा करुना मरजादा, सम रस जल जह होई।। परहित लहर हरख जलचर बहु, नय पकति परकारी।