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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 167 का कर्मरूप में आना आस्रव है। द्यानतराय ने कर्मों के उदय आदि की चर्चा इस प्रकार की है -
कर्म सुभासुभ जो उदयागत, आवत हैं जब जानत ज्ञाता। पूरव भ्रामक भाव किये बहु, सो फल मोहि भयौ दुःखदाता।। सो जड़रूप स्वरूप नहीं मम, मैं निज सुद्ध सुभावहि दाता। नास करौं पल मैं सबकौं अब, जाय बसौं सिवखेत विख्याता।"
(4) बंध का निरूपण-बँधने, अटकने को बंध कहते हैं, अर्थात् मोह-राग-द्वेष आदि के विकारीभावों का निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्मों का जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही विशिष्ट सम्बन्ध हो जाना बंध कहलाता है। - कर्मों के बँधने को दुःखदायक बताते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं -
कर-कर आतमहित रे प्रानी। जिन परिणामनि बंध होत, सो परनति तज दुखदानी।। 1 || ___इसी प्रकार एक अन्य पद में वे बंध का नाश करने की बात करते हुए लिखते हैं -
अब हम अमर भए न मरेंगे। ... तन कारन मिथ्यात दियो तजि, क्यौं करि देह धरेंगे।। ...उपजै मरै काल तैं प्रानी, तातै काल हरेंगे। · राग दोष जग बंध करत है, इनको नास करेंगे।। 2113
(5) संवर तत्त्व का निरूपण- आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं अर्थात् ज्ञानानंद स्वभावी अपने आत्मा को अपनत्व रूप से जानकरपहचानकर, उसमें ही स्थिरता के बल पर मोह-राग-द्वेषादि अशुद्धि उत्पन्न न होने, रुक जाने तथा वीतरागता उत्पन्न हो जाने से नवीन कर्मों का आना रुक जाना, संवर कहलाता है।
___ संवर की चर्चा करते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं - मोहि कब ऐसा दिन आय है।। टेक।। सकल विभाव अभाव होहिंगे, विकलाता मिट जाय है। यह परमातम यह मम आतम, भेद बुद्धि न रहाय है। औरन की का बात चलावै, भेद विज्ञान पलाय है। जानें आप आप मैं आपा, सो व्यवहार विलाय है।