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160 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
दर्शन ज्ञान चरन के विकलप, कहो कहाँ ठहराय है। द्यानत चेतन चेतन है है, पुद्गल पुद्गल थाय है।
राग-द्वेष परिणामों को पुद्गल की सन्तान बताते हुए निश्चय शुद्धात्मा को ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार की बात बताते हुए लिखते हैं।
जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी।। टेक।। रागदोष पुद्गल की संगात, निहचै शुद्ध निशानी। जाय नरक पशु नर सुर गति में, ये परजाय विरानी। सिद्ध-स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी।। कियो न काहू हरै न कोई, गुरु शिख कौन कहानी। जनम-मरन-मलरहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी। सार पदारथ है तिहुं जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी।
द्यानत सो घटमाहिं विराजै, लख हजै शिवधानी।।55 .. निश्चय से शुद्धात्मा को जानकर सारे भेद विकल्प मिटाने के लिए वे लिखते हैं - : मगन रहु रे! शुद्धातम में मगन रहु रे।। टेक।।
राग दोष पर को उतपात, निहचै शुद्ध चैतना जात ।। मगन।। विधि निषेध को खेद निवारि, आप आप में आप निहारि। बंध मोक्ष विकलप करि दूर, आनंदकंद चिदातम सूर।। दरसन ज्ञान चरन समुदाय, द्यानत ये ही मोक्ष उपाय || मगन ।।
सुख दुख के विषय में इस जीव की मिथ्या भ्रान्ति का निवारण निश्चयनय से बताते हुए वे लिखते हैं -
भाई! अब मैं ऐसा जाना। पुद्गल दरब अचेत भिन्न हैं, मेरा चेतन बाना। कलप अनन्त सहत दुख बीते, दुखको सुख कर माना।। सुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मन” आना। जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशि की ठौर बिहाना। भूल मिटी जिनपद पहिचाना, परमानन्द निधाना।। गूंगे का गुड़ खांय कहै किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना। द्यानत जिन देख्या ते जाने, मेंडक हंस परवाना।। भाई।।