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158. कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना तो नहीं सम्भाले और न ही एक भी काम किया, सभा में बैठकर उपदेश बहुत दिये, किन्तु स्वयं में परिवर्तन नहीं आया, परद्रव्यों में ममत्व करके उत्तम से हीन हो गये, अन्त में द्यानतराय कहते हैं कि मन-वच-काय को स्थिर कर आतम अनुभव करना ही श्रेयस्कर है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि द्यानतरायजी को बाह्य आडम्बर पसन्द नहीं था, वे तो अध्यात्म को ही आत्मकल्याण का साधक मानते थे।
(8) व्यवहार साधना मार्ग - साधना मार्ग को दो तरह से विभाजित किया जाता है - (1) व्यवहार साधना मार्ग और (2) निश्चय साधना मार्ग। व्यवहार साधना मार्ग के अन्तर्गत व्रत, शील, संयम, देव-शास्त्र-गुरु के प्रति भक्तिभाव इत्यादि आते हैं। द्यानतरायजी ने व्यवहार साधना मार्ग के अन्तर्गत देव-शास्त्र-गुरु के प्रति भक्ति एवं व्रत, शील, संयम का वर्णन जगह-जगह किया है। द्यानतरायजी की प्रसिद्ध पूजने व्यवहार साधना मार्ग का ही उदाहरण हैं। ... . देव की आराधना करते हुए वे लिखते हैं - पूजा परम जिनराज. चाहूँ, और देव नहीं कदा। तिहुँकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नहिं लागे कदा।। . इसी प्रकार तप, व्रत का वर्णन करते हुए लिखते हैं - .
भावना बारह जु भाऊँ, भाव निरमल होत हैं। मैं व्रत जु बारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं।। प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना।
वसुकर्म तैं मैं छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहँ मोह ना।। . मैं साधुजन को संग चाहूँ, प्रीति तिनहीं सों करौं। मैं पर्व के उपवास चाहूँ, आरम्भ मैं सब परिहरौं ।। " देव-शास्त्र-गुरु के प्रति भक्तिभाव व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं -
प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू । . गुरु निरग्रंथ महंत मुकतिपुर-पंथ जू।।
तीन रतन जगमाहिं सु ये भवि ध्याइये।
तिनकी भक्ति-प्रसाद परम पद पाइये।।48 चौबीस तीर्थंकर को मोक्षदाता बताते हुए वे लिखते हैं - भुक्ति मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर। तिन पद मन-वच धार, जो पूजै सो शिव लहै।।49