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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 159: बाह्य में परिग्रह के त्याग की बात बताते हुए वे लिखते हैं कि -
परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें मुनिराजजी। - तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए।। इसी प्रकार शील धारण करने की प्रेरणा देते हुए वे लिखते हैं -- शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो। करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा।। तप को धारण करने की बात बताते हुए वे लिखते हैं - तप चाहैं सुरराय, करम, शिखर को वज है।
द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम।। : परमात्मा का नाम जपने से ही सारे पाप क्षीण हो जाते हैं। परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही असीम सुख की अनुभूति होती है। इसका वर्णन करते हुए वे लिखते हैं -
रे मन भज भज दीन दयाल।
जाके नाम लेत इक खिन में, कट कोटि अघ जाल।। रे मन.।। . पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निहाल। ---- ....सुमरण करत परम सुख पावत सेवत भाजै काल ।। रे मन.।।
इन्द्र फणिंद्र चक्रधर गावैं जाको नाम रसालं। जाके नाम ज्ञान प्रकालै। नासै मिथ्या चाल।ारे मन.।। जाके नाम समान नहीं कछु ऊरध मध्य पताल। . सोई नाम जपौं नित धानत, छांडि विषै विकराल ।। रे मन..
(9) निश्चय साधना का मार्ग - निश्चय साधना मार्ग के अन्तर्गत शुद्धात्मा की चर्चा आती है। द्यानतरायजी आध्यात्मिक कवि हैं, अतः उन्होंने अपने काव्य में निश्चय साधना को विशेष स्थान दिया है। जैसा कि -
मोहि कब ऐसा दिन आय है।। टेक।। सकल विभाव अभाव होंहिगे, विकलपता मिट जाय है। यह परमातम यह मम आतम, भेद बुद्धि न रहाय है।। औरन की क्या बात चलावै, भेदविज्ञान पलाय है। जानें आप आप में आपा, सो व्यवहार विलाय है।। नय प्रमाण निक्षेपन माहीं, एक न औसर पाय है।