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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
(10) उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म - ब्रह्म अर्थात् निजशुद्धात्मा में चरना-रमना ही ब्रह्मचर्य है । जैसा कि 'अनगार धर्मामृत' में कहा है या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः ।
तद् ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ।।8/60 ।। ब्रह्मचर्य का स्वरूप पद्मनन्दि पंचविंशतिका' में इस प्रकार दिया है. - आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यां पर
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स्वांगसंग— विवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः । । यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा कहा गया है। उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर से निर्ममत्व हो गया, उसी के वास्तविक ब्रह्मचर्य होता है ।
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द्यानतराय ने भी ब्रह्मभाव को अन्तर में देखने की बात कही है: शील- बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो । करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा । । उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ । न नैन-बान लखि कूरे । । काम - रोगी रति करें। काग ज्यों
सधैं दाने-दरषा बहु सूरे, टिकै करे तिया के अशुचि तन में बहु मृतक सड़हि मसान माहीं, चोंचें भरैं ।। संसार में विष- बेल नारी तजि गये जोगीश्वरा । द्यानत धरम दश पैड़ि चढ़ि कैं, शिव - महल में पग धरा ।। 39
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- दशलक्षण पूजन की जयमाला में द्यानतराय ने बड़े ही रोचक ढंग से दशों धर्मों का वर्णन संक्षिप्त, लेकिन सारगर्भितरूप से किया है। उनकी इसी विशेषता के कारण उनकी दशलक्षण पूजन जैन समाज में विशेष रूप से लोकप्रिय है ।
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दशलक्षण जयमाला
दश लच्छन वन्दौं सदा, मनवांछित फलदाय । कहीं आरती भारती, हम पर होहु सहाय । । उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर - बाहिर शत्रु न कोई । उत्तम मार्दव विनय प्रकासै, नानाभेद ज्ञान सब भासै ।। उत्तम आर्जव कपट मिटावै, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उत्तम सत्य - वचन मुख बोलै, सो प्रानी संसार न डोलै ।।
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