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.152. कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना. उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजे अघ तेरे । सुरग-नरक पशुगति में नाहिं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं।। .
ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो। सपरसन रसना घान नैना, कान मन सब वश करो।। जिस बिना नहीं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग कीच में। इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में ||30
(7) उत्तम तप धर्म- इच्छा का निरोध करना वह तप है।" तप चार आराधनाओं में प्रधान है। जैसे स्वर्ण को तपाने से सोलह बार पूर्ण उष्णता देने पर वह समस्त मैल छोड़कर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी बारह प्रकार के तपों के प्रभाव से कर्ममल रहित होकर शुद्ध हो जाता है।32 .. समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्व स्वरूप में 'प्रतपन करना-विजयन करना तप है। तात्पर्य यह है कि समस्त रागादि
भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में - अपने में लीन होना अर्थात् आत्मलीनता ' द्वारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है।
कवि-द्यानतराय ने तप धर्म का स्वरूप इस प्रकार व्यक्त किया है - ....... तप चाहैं सुरराय, करम-शिखर को वज है।
" द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम।। .. - उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम शैल को वज समाना। बस्यो अनादि निगोद नँझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा।।
धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता। श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता।। . .
अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें। ... नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै।।*
....... (8) उत्तम त्याग धर्म - निज शुद्धात्म के ग्रहण पूर्वक बाह्य और . आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्ति त्याग धर्म है। जैसा कि कहा है - ... निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः 135 -
.. इसी बात को बारस-अणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) में इस प्रकार कहा गया है - .. णित्वेगतियं भवाइ योहं चइऊण सव्व दव्वेसु। ... जो तस्स हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिदेहिं ।। 78 11: