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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना (मुमुक्षु) के लिए परम आवश्यक है। क्योंकि बाह्य में देव - गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होगी, उनकी स्तुति - वन्दना नहीं होगी तो अन्तरंग शुद्धि सम्भव नहीं है । अन्तरंग शुद्धि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं
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आतम अनुभव करना रे भाई ।।
जब लौ भेद - ज्ञान नहिं उपजै, जनम - मरण दुख भरना रे ।।1।। आगम पढ़ नव तत्त्व बखाने, व्रत तप संजम धरना रे । आतम ज्ञान बिना नहिं कारज, जोनी संकट परना रे ।। 2 ।। सकल ग्रन्थ दीपक है भाई, मिथ्या तम को हरना रे । कहा करैं ते अन्ध पुरुष को, जिन्हें उपजना मरना रे ।। द्यानत जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे । 'सोऽहं' ये दो अक्षर जपकै, भव - जल पार उतरना रे ।। 17
द्यानतराय जी अन्तरंग में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष भावों को भी आत्मा से पृथक् मानते हैं और आत्मा को राग-द्वेष विभाव भावों से रहित शुद्धतत्त्व स्वीकार करते हुए लिखते है -
अब हम अमर भये न मरेंगे ।। टेक ||
तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे। अब । उपजै मरै काल तैं प्रानी, तातैं काल हरेंगे । राग-द्वेष जग बन्ध करत हैं, इनको नाश करेंगे ।। देह विनाशी मैं अविनाशी, भेद - ज्ञान पकरैंगे । नासी जासी हम थिर वासी, चोखे हो निखरैंगे ।। मरे अनन्तबार बिन समझे, अब सुख दुख बिसरेंगे । 'द्यानत' निपट निकट दो अक्षर, बिन सुमरें सुमरेंगे ।।
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बाह्यशुद्धि का वर्णन द्यानतरायजी ने बाह्यशुद्धि के अन्तर्गत जीव की देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा एवं श्रावक धर्म का अनुपालन तथा मुनि धर्म की चर्चा की है। जैसा कि वे लिखते हैं
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रे जिय! जनम लाहो लेह ।। टेक ||
चरन ते जिन भवन पहुँचे, दान दै कर जेह ।। रे जिय । ।
उर सोई जामैं दया है, अरु रुधिर को
गेह |
रे
जिय । ।
जीभ सो जिन नाम गावैं, साँच सौ करै नैह ।। आँख ते जिनराज देख, और आँख
खेह |