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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना फिर पीछे पछतायगा, अवसर जब सटकैं ।। एक घड़ी है सफल जौ प्रभु-गुण रस गटकें । कोटि वरण जीवो वृथा जो थोथा फटकैं ।। द्यानत उत्तम भजन है कीजैं मन रटकै । भव मन के पातक सबै जैहै तो कटकैं ।। निज ।। इस प्रकार द्यानतरायजी ने ईश्वर आराधना, आत्म-अनुभव के लिए मन संयम को आवश्यक माना है ।
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(3) प्राणी रक्षा की बात - जैनदर्शन में जीवों को दो प्रकार से विभाजित किया है (1) संसारी तथा (2) मुक्त। 14 उनमें संसारी जीवों के दो भेद किये है (1) त्रस, (2) स्थावर जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय में लिखा है.
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संसारिणस्त्रस स्थावराः ।। 12 ।।
उनमें दो इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव त्रस जीव कहलाते हैं। 5 एक इन्द्रिय जीव जैसे कि 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ' अर्थात् पृथ्वीकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक ये स्थावर जीव कहलाते हैं ।
त्रस
संसारी
दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय तक
जीव
स्थावर
पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक वायुकायिक, वनस्पतिकायिक
द्यानतरायजी ने उपर्युक्त दोनों त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा की बात जगह-जगह पर की है। जैसा कि
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मुक्त
दोज दुभेद सिद्ध संसार, संसारी त्रस थावर धार ।
सुपर दया दोनों मन धरौ, राग-दोष तजि समता करौ || 2 || 16 (4) अन्तरंग एवं बाह्यशुद्धि का वर्णन द्यानतरायजी आत्मानुभव के लिए जहाँ अन्तरंग शुद्धि (पवित्रता) के पक्षधर थे, वहीं व्यवहार धर्म के भी पक्षधर थे। उनके अनुसार बाह्य में जैन धर्मानुकूल आचरण मोक्षार्थी
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