________________
144 . कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
जिस प्रकार ज्ञान मूर्त, अमूर्त, इन्द्रिय–अतीन्द्रिय होता है, उसी प्रकार सुख भी मूर्त-अमूर्त और इन्द्रिय-अतीन्द्रिय होता है। इनमें इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख हेय हैं और अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख उपादेय है।
आचार्य अमृतचन्द्र भी लिखते हैं कि - अथेन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्रणिन्दति ।
___ अर्थात् इन्द्रियसुख का साधनभूत इन्द्रियज्ञान हेय है। इस प्रकार इन्द्रियज्ञान की निन्दा कर आचार्य इन्द्रियों में संयम करने की प्रेरणा देते हैं। - कविवर द्यानतरायजी ने भी उपर्युक्त कथनों का समर्थन करते हुए अपने काव्य में इन्द्रिय सुख को हेय बताकर इन्द्रिय संयम की बात जगह-जगह कहीं है -
तू तो समझ समझ रे भाई।। टेक।। निशिदिन विषयभोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई।। टेक ।। पंच-इन्द्रियों से मन को हटाने की बात करते हुए वे कहते हैं -
पंच परावर्तन लखि लीजै। पाँचौ इन्द्री कौं न पतीजै ।। द्यानत पाँचौं लखि लहीजै।
पंच परमगुरु सरन गहीजै।। इन्द्रियों को चंचल बताते हुए वे लिखते हैं कि - इन्द्री पंचसु विषयनि दौरै, मानै कह्या न कोई। साधारन चिरकाल वस्यौ मैं, धरम बिना फिर सोई।। इन्द्रिय विषयों को विषफल बताते हुए लिखते हैं -
इन्द्री विषै विषै फलधार।
मीठे लगें अंत खयकार ।। विषय-भोगों में लगे रहने से जीव आत्मकल्याण नहीं कर पाता है। इसकी पुष्टि करते हुए सुबोधपंचासिका में लिखते हैं - जरापने जो दुख सहे, सुन भाई रे।
सो क्यों भूले तोहि, चेत सुन भाई रे।। जो तू विषयों से लगा, सुन भाई रे।
__ आतम सुधि नहिं तोहि, चेत सुन भाई रे।। 21 || इस प्रकार द्यानतरायजी ने आत्मकल्याण के लिए इन्द्रिय संयम की