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86 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना : योगदर्शन में मूलतः ईश्वर का व्यावहारिक महत्त्व है। योगदर्शन का मुख्य उद्देश्य चित्तवृत्तियों का निरोध है, जिसकी प्राप्ति 'ईश्वर प्रणिधान' से ही सम्भव मानी गयी है। ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है- ईश्वर की भक्ति। यही कारण है कि योग दर्शन में ईश्वर को ध्यान का सर्वश्रेष्ठ विषय माना गया है।
यद्यपि योगदर्शन में ईश्वर का व्यावहारिक महत्त्व है; फिर भी इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि योगदर्शन में ईश्वर के सैद्धान्तिक पक्ष की अवहेलना की गई है, सर्वथा अनुचित होगा इसका कारण यह है कि योगदर्शन में ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या सैद्धान्तिक दृष्टि से की गई है तथा ईश्वर को प्रमाणित करने के लिए तर्कों का प्रयोग हुआ है।
पतंजलि ने स्वयं ईश्वर को एक विशेष प्रकार का पुरुष कहा है, जो दुख-कर्म विपाक से अछूता रहता है। ईश्वर स्वभावतः पूर्ण और अनन्त है। उसकी शक्ति सीमित नहीं है। ईश्वर नित्य है, वह अनादि और अनन्त है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वह त्रिगुणातीत है। ईश्वर जीवों से भिन्न है। जीव, में अविद्या, राग, द्वेष आदि का निवास है; परन्तु ईश्वर इन सभी से रहित है। जीव कर्मनियम के अधीन है, जबकि ईश्वर कर्मनियम से स्वतन्त्र है। ईश्वर मुक्तात्मा से भी भिन्न है। मुक्तात्मा पहले बन्धन में रहते हैं, फिर बाद में चलकर मुक्त हो जाते हैं। इसके विपरीत ईश्वर नित्य मुक्त है।
ईश्वर एक है। यदि ईश्वर को अनेक माना जाए, तब दो ही सम्भावनायें हो सकती हैं। पहली सम्भावना यह हो सकती है कि अनेक ईश्वर एक-दूसरे को सीमित करते हैं, जिसके फलस्वरूप अनीश्वरवाद का प्रादुर्भाव होगा। अतः योग को एकेश्वरवादी दर्शन कहा जाता है।
योगदर्शन में ईश्वर को विश्व का सृष्टि कर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता नहीं माना गया है। विश्व की सृष्टि प्रकृति के विकास के फलस्वरूप ही हुई है। यद्यपि ईश्वर विश्व का सृष्टा नहीं है, फिर भी वह विश्व की सृष्टि में सहायक होता है। विश्व की सृष्टि पुरुष और प्रकृति के संयोजन से ही आरम्भ होती है। पुरुष और प्रकृति दोनों एक-दूसरे से भिन्न एवं विरुद्ध कोटि के हैं। दोनों को संयुक्त करने के लिए योगदर्शन में ईश्वर की मीमांसा हुई है। अतः ईश्वर विश्व का निमित्त कारण है, जबकि प्रकृति