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122 . . कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
कषाय के चार भेद हैं - (1) क्रोध, (2) मान (3) माया (4) लोभ । इसके अवान्तर भेद 25 हैं, जो निम्न हैं -
(1) अनन्तानुबन्धी क्रोध (2) अप्रत्याख्यान क्रोध (3) प्रत्याख्यान क्रोध (4) संज्वलन क्रोध (5) अनन्तानुबन्धी मान (6) अप्रत्याख्यान मान (7) प्रत्याख्यान मान (8) संज्वलन मान (9) अनन्तानुबन्धी माया (10) अप्रत्याख्यान माया (11) प्रत्याख्यान माया (12) संज्वलन माया (13) अनन्तानुबन्धी लोभ (14) अप्रत्याख्यान लोभ (15) प्रत्याख्यान लोभ (16) संज्वलन लोभ (17) हास्य (18) रति (19) अरति (20) शोक (21) भय (22) जुगुप्सा (23) स्त्रीवेद (24) पुरुषवेद (25) नपुंसकवेद
उपर्युक्त कषाय भावों से ही जीव अपने शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं कर पाता है। इन्हीं कषायों को आत्मानुभव में बाधक बताते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं -
तू तो समझ समझ रे भाई। निशदिन विषय भोग लिपटाता धरम वचन ना सुहाई। कर मनका ले आसन मांड्यो बाहिर लोक रिझाई। कहा भयो वक ध्यान धरे तैं जो मन थिर ना रहाई।। मास मास उपवास किये तै काया बहुत सुखाई। क्रोध मान छल लोभ न जीत्यो कारज कौन सराई। मन वच काय जोग थिर करके त्यागो विषय कषाई। द्यानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सत् गुरु सीख बताई।।112
द्यानतराय आत्मा को क्रोध, मान, माया, लोभ से पृथक् बताते हुए लिखते हैं -
क्रोध मान माया नहिं लोभ, लेस्या सल्य जहाँ नहिं सोभ । - जन्म जरा मृतुधौ नहिं लेस, सो मैं सुद्ध निरंजन भेस।। 1911/13
अर्थात् जिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है, न शल्य है न कोई लेश्या है और न जन्म, न जरा और मरण भी है; वही निरंजन मैं कहा गया हूँ।
. सुबोधपंचासिका में क्रोध कषाय को त्यागने की बात बताते हुए कहते हैं कि -