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120. कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
कियो न काहू हरै न कोई, गुरु शिख कौन कहानी।। जनम-मरन मल रहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी।। जानत।। सार पदारथ है तिहुँ जग में, नहिं क्रोधी नहिं मानी।। द्यानत सौ घट माहिं विराजै, लख दूजै शिवथानी।। जानत। 108
राग-द्वेष को जगत में बन्ध कराने वाला बताते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं कि -
अब हम अमर भये न मरेंगे।। टेक।। तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे। उपजै मरै काल ते प्रानी, तातें काल हरेंगे। . राग द्वेष जगबन्ध करत हैं, इनको नाश करेंगे। देह विनाशी मैं अविनाशी भेदज्ञान क हैंगे। नासी जासी हम थिर वासी, चोखे हो निखरेंगे।। मरे अनन्तबार बिन समझे, अब सुख दुख विसरेंगे।
द्यानत निपट निकट हो अक्षर, बिन सुमरे सुमरेंगे।। 107
राग-द्वेष दोनों को जीव के स्वभाव से पृथक् बताते हुए वे लिखते हैं कि. राग भाव ते सज्जन माने, द्वेषभाव तें दुर्जन जाने।
रागद्वेष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतन पद माहीं।
तत्त्वसार में शिष्य द्वारा पूछे जाने पर कि यह जीव पर समयरत होता हुआ क्या-क्या करता है?
इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप निम्न पद लिखते हैं -
देख सो चेतन नहीं, चेतन देखौ नाहिं। . राग दोष किहिसौं करौ, हौं मैं समतामाहिं।। 36 || 108
अर्थात् मूढ़ बहिरात्मा अज्ञानी पुरुष नित्य सर्वकाल रात-दिन किसी अनिष्ट प्रतीत होनेवाले परद्रव्य में रुष्ट होता है अर्थात् द्वेष करता है और किसी इष्ट प्रतीत होनेवाले परद्रव्य में सन्तुष्ट होता है अर्थात् प्रसन्न होकर राग करता है।
___ द्यानतरायजी ने राग-द्वेष को पुद्गल का बताकर उसे चेतन से भिन्न बताया है। जैसा कि वे लिखते हैं -
जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी।।टेक।। रागद्वोष पुद्गल की संगात, निहचै शुद्धनिशानी।। जानत।।