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126 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
प्रश्न-कैसा होता हुआ वह किसी में द्वेष और किसी में राग करता है?
उत्तर-निर्विषयरूप परमात्मा से विपरीत जो पाँचों इन्द्रियों के विषय हैं, उनके वश में गया हुआ यह इन्द्रिय-विषयासक्त जीव किसी वस्तु में द्वेष और किसी वस्तु में राग करता है।
प्रश्न-और यह इन्द्रिय-विषयासक्त जीव कैसा होता है? उत्तर-सकषाय और अज्ञानी होता है।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायों के साथ जो रहता है, सकषाय कहलाता है तथा अज्ञान जिसके पाया जाये, वह अज्ञानी कहलाता है। इन्द्रिय-विषयासक्त जीव सकषाय भी है और आत्मज्ञान से रहित होने के कारण अज्ञानी भी है। इस अज्ञानी और सकषाय जीव से ज्ञानी विपरीत होता है।
प्रश्न-ज्ञानी कौन कहलाता है?
उत्तर-जो स्व-समय-रत अन्तरात्मा है, वह ज्ञानी कहलाता है। ऐसा जानकर अज्ञान, पर-समयत्व, कषाय, इन्द्रियादि दोषों से विलक्षण, वीतराग, सर्वज्ञ शासन का मूल जो स्वसंवेदन ज्ञान है और जो सम्पूर्ण विमल केवलज्ञान का कारणभूत है, वही वीतराग विज्ञान सर्वप्रकार से उपादेय है।120
द्यानतरायजी भी वीतराग-विज्ञान स्वरूप केवलज्ञान का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं -
देखौ भाई आतम राम विराजै। छह दरब नव तत्व गेय हैं, आपसु ग्यायक छाजै ।। देखो भाई।। अरिहंत सिद्ध सूरि गुरु मुनिवर, पाँचौ पद जिह माहिं। दरसन ग्यान चरन तप जिस मैं पटतर कोऊ नाहीं।। देखो भाई।। ग्यान चेतन कहियै जाकी, बाकी पुद्गल केरी। केवल ग्यान विभूति जा सकै, आतम विभ्रम चेरी।। देखो भाई।। एकेंद्री पंचेन्द्री पुद्गल, जीव अतिंदी ग्याता। द्यानत गही सुद्ध दरब कौ, जान पनो सुख दाता।। देखो भाई।।21
अर्थात् यह आतमराम विराजमान है। यह आत्मा ज्ञायक स्वभावी है तथा छह द्रव्य, नवतत्त्व ज्ञेय है। अरिहंत, सिद्ध, गुरु ये दर्शन, ज्ञान व चारित्र तप जिनमें विद्यमान है, चेतन को ज्ञानस्वरूप कहकर बाकी सब को पुद्गल की उपमा है तथा जो शुद्ध द्रव्य को जानता है, वही सुख को प्राप्त करता है।