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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 135 भविजन मन सर. वर भरि उमड़े समुझि पवन सियरी।। परम।। स्याद्वाद बिजली चमकै, पर-मत शिखर परी। . चातक मोर साधु श्रावक के हृदय सुभक्ति भरी।। परम.।। जप तप परमानन्द बढ्यो है सुसमय नीव धरी। द्यानत पावन पावस आयो थिरता शुद्ध करी।। परम. ||134
गुरु अपनी ज्ञान की वर्षा से मिथ्यात्व का हरण करते हैं, उनकी श्रद्धा से संशय का अभाव हो जाता है। उनकी वाणी में स्याद्वाद रूपी बिजली चमकती है, उनकी वाणी ने श्रावकों के हृदय में भक्ति का संचार कर दिया। जप, तप करके परम आनन्द की प्राप्ति हो गई। द्यानतराय कहते हैं कि अमृत वर्षा का पावन दिन आ गया, जिससे आत्मा में स्थिरता हो गई है। गुरु को जगत से पार करनेवाला जहाज की उपमा देते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं -
गुरु समान दाता नहिं कोई ।। टेक।। भानु प्रकाश न नाशत जाको, सो अँधियारा ठारै खोई। मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाकै नहिं होई।.. नरक पशुगति आग माहितै, सुरग मुकत सुख थापै सोई।। तीन लोक मदिर में जानो, दीपक मम परकाश कलोई। दीप तले अँधियार भर्यो है अंतर बहिर विमल है जोई।। .. .. " तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जग तोई। द्यानत निशिदिन निरमल मन में राखो गुरुपद पंकज दोई।। 135,
गुरुओं को राग-द्वेष से रहित बताते हुए वे लिखते हैं - धनि ते साधु रहत वन मांही।। टेक।। शत्रु मित्र सुख दुख सम जाने, दरसन देखत पाप पलाही।। अट्ठाइस मूल गुण धारै, मन वच काय चपलता नाहीं। ग्रीष्म शैल शिखर हिम तरिनी, पावस वरखा अधिक सहाही।। क्रोध मान छल लोभ न जानै राग दोष नाहीं उनपाहीं। अमल अखण्डित चिदुण मंडित ब्रह्मज्ञान में लीन रहाहीं।। तेई साधु लहै केवल पद, आठ-आठ दह शिवपुर ज़ाहीं। 'द्यानत' भवि तिनके गुण गावैं पावै शिवसुख दुख नसाही।। 138