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134 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना किया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो राग-द्वेष रहित है, अपने आत्म स्वरूप में लीन रहने का निरन्तर अभ्यास करते हैं और सर्व परिग्रह से रहित हैं, वे सच्चे गुरु कहलाते हैं।
जैसा कि बनारसीदासजी ने भी एक पद में कहा है - ऐसे मुनिवर देखे वन में, जाके रागद्वेष नहिं मन में।। टेक ।। विरक्तभाव वक्ष के नीचे, बँद सहें वह तन में।। झाड़ी जंगल नदी किनारे, ध्यान धरें वो मन में। गिरिवर मरुत शिखर के ऊपर, ध्यान धरें ग्रीषम में। ऐसे मुनिवर देख 'बनारसी' नमन करत चरणन में।। ऐसे।।132
कविवर द्यानतराय ने भी सद्गुरु का स्वरूप बताकर उनका माहात्म्य बताया है। एक पद में सदगुरु का महत्त्व इस प्रकार बताया है -
हम तो कबहूँ न निज घर आये। पर घर फिरत बहुत दिन बीते। नाव अनेक धराये।। हम.।। पर पद निज पद मानि मगन है, पर परिणति लपटाये। शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर आतम गुण नहिं गाये।। हम.।। पर पशु देवन कौ निज मान्यो, परजै बुद्धि कहाये। . अमूल अखंड अतुल अविनासी। चेतन भाव न भाये।। हम.।। हित अनहित कछु समझयो नाहीं। मृग जल बुध ज्यौं धाए।। द्यानत अब निज-निज पर है सत्गुरु बैन सुनाये।। हम.।।133
द्यानतरायजी कहते हैं कि मैं कभी भी अपने स्वरूप के निकट नहीं आया, परद्रव्य को अपना मान कर बहुत दिन बिता दिए। परद्रव्य को निजद्रव्य मानकर मैं मग्न हो रहा था, लेकिन अभी भी शुद्ध, बुद्ध, सुख की खान आत्मा को नहीं जाना और मनुष्य, तिर्यंच एवं देव को अपना स्वरूप मानकर अपने चेतनभाव को मैंने भुला दिया, किन्तु जब सद्गुरु का समागम मिला तो उनकी वाणी से मेरी अज्ञानता दूर होकर सद्बुद्धि मिल गयी।
गुरु ज्ञान की धारा बरसाने वाले एवं मिथ्यात्व के नाशक बताते हुए वे लिखते हैं -
परम गुरु बरसत ज्ञान झरी।
हरषि हरषि बहु गरजि गरजि कै मिथ्यातपन हरी।। परम.।। . सरधा भूमि सुहावन लागै, संशय बेलि हरी।