________________
132
कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
किन्तु उसे खींच-तानकर नहीं करते । उदासीनरूप से सहज ही बाह्य क्रिया होती है। इतने समय में मुझे अमुक स्थान तक विहार करना ही पड़ेगा, अमुक प्रसंग पर मुझे बोलना ही पड़ेगा - ऐसा बाह्य क्रिया का हठाग्रह मुनि के नहीं होता । यहाँ मुनिदशा के योग्य हो ऐसी बाह्य क्रिया की बात है, जो मुनिदशा में योग्य न हो - ऐसी बाह्य क्रिया मुनि के होती ही नहीं, ऐसा ही मेल है ।
उपयोग को बहुत नहीं भ्रमाते
मुनि अपने उपयोग को बहुत भटकाते नहीं हैं, किन्तु उदासीन होकर निश्चल वृत्ति को धारण करते हैं। तीन कषायों का नाश होने से महान वीतरागी स्थिरता प्रगट हुई है; इसलिए उपयोग को बहुत नहीं भटकाते । बाहर की यह बात जान लूँ, वह बात जान लूँ, इतनी पुस्तकें पढ़ लूँ - इस प्रकार जहाँ-तहाँ उपयोग को नहीं ले जाते । यद्यपि अभी स्वरूप में उपयोग I पूर्णतया स्थिर नहीं हुआ है, इसलिए बाह्य में भी जाता है, किन्तु उसे अधिक नहीं घुमाते; मुख्यतया तो शुद्धोपयोग की ही साधना करते हैं । मुनियों के शुद्धोपयोग की प्रधानता है और शुभोपयोग गौण है ।
अन्तरंगदशा पूर्वक बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्रा -
-
इस प्रकार मुनि की अन्तरंगदशा का स्वरूप बताया। वैसी अन्तरंगदशा पूर्वक बाह्य में कैसी दशा होती है? उसको जानना आवश्यक है । उपर्युक्त अन्तरंग दशा होने पर बाह्य में मुनि दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी होते हैं । मुनि की बाह्य मुद्रा भी उपशान्त स्थिर सौम्य होती है। शरीर के समस्त अंग-विकाररहित उपशान्त हो गये हैं । मुनि को शरीर पर वस्त्रादि नहीं होते और शरीर - संस्कारादि विक्रिया भी उनके नहीं होती ।
—-
अन्तर में तीन कषायों का नाश होकर शुद्धोपयोगरूप वीतरागी मुनिदशा प्रगट हो, वहाँ बाह्य में शरीर की दिगम्बर सौम्य मुद्रा न हो - ऐसा नहीं हो सकता तथा अन्तरंग में शुद्धोपयोगरूप मुनिदशा प्रगट हुए बिना, मात्र बाह्य में दिगम्बर हो तो उसे मुनिदशा नहीं कहा जाता। इसलिए अन्तरंग और बाह्य दशा का जैसा मेल है, वैसा जानना चाहिए ।
मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी तो संसारतत्त्व
-
सच्चे गुरुओं के तो अन्तरंग की शुद्धोपयोगदशा पूर्वक बाह्य में