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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 131 मुनिदशा है! जैन मुनि ऐसे होते हैं कि वे शुद्धोपयोग द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं। शुद्धोपयोगरूप वीतरागी चारित्र ही सच्चा गुरुपना है। इसके सिवाय शुभराग में या शरीर की दिगम्बर दशा में मुनित्व नहीं है। मनियों के पंच महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण आदि होते हैं। वह शुभोपयोग मुनिदशा नहीं है। मुनि वास्तव में उस शुभोपयोग को नहीं आदरते, किन्तु अन्तर में शुद्धोपयोग का ही अनुभव करते हैं। परद्रव्य या परभाव में ममत्व का अभाव -
सद्गुरु अपने ज्ञानादि स्वभाव को ही अपना मानते हैं, इसके सिवाय किसी भी परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं करते और न रागादि परभावों में ममत्व करते हैं; अपने ज्ञानादि स्वभाव को ही अपना स्वरूप मानते हैं और परद्रव्य, राग या परभाव में ममत्व नहीं रखते। पर को इष्ट-अनिष्ट मानने का अभाव -
परद्रव्य में अहंबुद्धि न होने पर भी, परद्रव्य तथा उसके स्वभाव ज्ञान में स्वयं प्रतिभासित होते हैं, उसे मुनि जानते अवश्य हैं, किन्तु उसे इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते। सम्यक्त्वी को भी पर में इष्ट-अनिष्टपने की बुद्धि तो नहीं है, किन्तु अभी राग-द्वेष होता है और मुनिदशा में तो महान वीतरागता प्रगट हो गयी है। मुनि परवस्तु को जानते ही नहीं-ऐसा नहीं है। आकुलतापूर्वक पर को जानते नहीं, किन्तु परद्रव्य सहज ही ज्ञान में ज्ञात होता है, उसे जानते हैं, परन्तु उसमें कहीं भी ममत्व नहीं करते और न कहीं इष्ट अनिष्टपना मान राग-द्वेष करते हैं। पर से सुख-दुःख मानने का अभाव -
शरीर की अनेक अवस्थाएँ होती हैं, रोगादि होते हैं और बाह्य में अनेक प्रकार के निमित्त आते हैं, किन्तु वे उनमें किंचित् सुख-दुःख नहीं मानते। पर में इष्ट-अनिष्टपना मानकर राग-द्वेष नहीं करते और न सुख-दुःख मानते हैं-ऐसी मुनि की दशा होती है। इन्द्र आकर पूजा करें या सिंह-चीते आकर शरीर को फाड़ खायें, उसमें मुनि सुख-दुःख नहीं मानते। यद्यपि सम्यक्त्वी भी पर से सुख-दुःख नहीं मानते, किन्तु मुनि को तो तदुपरान्त स्वरूप की स्थिरता होने से महान वीतरागता हो गयी है, इसलिए हर्ष-शोक नहीं होते। बाह्य क्रिया खींच-तानकर नहीं करते -
अपनी मुनिदशा के योग्य बाह्य क्रिया जैसी होती है, वैसी होती है,