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136 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
सद्गुरु को वनवासी, परिग्रह रहित एवं तपस्वी की उपमा देते हुए वे लिखते हैं -
धनि धनि ते मुनि गिरिवन वासी।। टेक।। . मार मार जग जार जारते द्वादस व्रत तप अभ्यासी।। कौड़ी लाल पास नहिं जाके जिन छेदी आसा पासी। आतम आतम पर-पर जानै, द्वादस तीन प्रकृति नासी।। जा दुख देख दुखी सब जग है सो दुख लख सुख है तासी। जाको सब जग सुख मानत है सो सुख जान्यो दुखरासी।। बाह्य भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हितमित भासी। द्यानत ते शिव पथिक है पाँव परत पातक जासी।।137
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि द्यानतरायजी ने दिगम्बर भावलिंगी मुनिराजों को ही सद्गुरु स्वीकार किया है और उन्हीं का समागम करने की प्रेरणा दी है। (७) साधक की अनिवार्यता सम्बन्धी विचार -
द्यानतरीय भक्त कवि हैं। उन्होंने अपने काव्य में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गुरु, जिनधर्म, जिनवाणी की स्तुति की है। स्तुति में दो वस्तुओं की आवश्यकता रहती है। एक साध्य दूसरा साधक, स्तुति साध्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से साधक करता है। अतः द्यानतरायजी ने साधक की अनिवार्यता सम्बन्धी विचार जगह-जगह प्रगट किये हैं। उन्होंने कहा है कि जो जिनराज की साधना करता है, वह एक पल में शिवराज अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है।138 साधक के कार्यों को गिनाते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं कि सच्चा साधक जड़ चेतन में भेदविज्ञान कर लेता है और परम तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।139 सच्चा साधक तत्काल ही मोक्ष सुख प्राप्त कर लेता है, जबकि अज्ञानी बहुत तप करने पर भी सुख प्राप्त नहीं कर पाता है।140 इस प्रकार द्यानतरायजी ने मोक्ष प्राप्ति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को मोक्ष का साधन बताते हुए सम्यग्दृष्टि को सच्चा साधक कहा है। (10) आस्रव निरोध की चर्चा तथा संवर, निर्जरा की चर्चा -
द्यानतरायजी ने कर्मों के आने को आस्रव कहा है तथा आस्रव के निरोध को ही संवर माना है। 142 जैसे माली आदि के माध्यम से जलाशयों में जल प्रविष्ट होता है, वैसे ही आत्मा में कर्म-प्रवाह आस्रव द्वार से प्रवेश करता है। आस्रव कर्म-प्रवाह को भीतर प्रवेश देनेवाला द्वार है। जैनदर्शन