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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 127 (8) सद्गुरु का महत्त्व
जिनवाणी के सम्पूर्ण रहस्य को जानकर जो आत्मा में स्थिर रहते हैं। आत्मस्थिर नहीं रह पाने पर आत्मस्थिरता में कारणभूत स्वाध्यायादि रूप ज्ञान में प्रवृत्त होते हैं। सभी प्रकार के आरम्भ और परिग्रह से सर्वथा रहित होते हैं। जिनका जीवन रंचमात्र भी विषय-भोगों की लालसा के अधीन नहीं होता है अर्थात् जो उनकी लालसा से पूर्णतया रहित है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्रत्नत्रय से सहित है जिनका बाह्य आचरण भी आगम के अनुकूल है। ऐसे आत्मज्ञानी-ध्यानी नग्न दिगम्बर मुनिराज सच्चे गुरु हैं।
विद्यागुरु हमारे ज्ञान में कारण होने से, हमारे पूर्णतया व्यक्तिगत कार्य में निमित्त होने के कारण, भूमिकानुसार आदरणीय, सम्माननीय है, परन्तु सच्चे गुरुओं की गुरुता निरपेक्ष गुरुता है। किसी के ज्ञान में निमित्त होने या नहीं होने से उनकी पूज्यता में कोई अन्तर नहीं आता है। वे वास्तव में अपनी वीतरागता के कारण पूज्य हैं। इसीलिए दिगम्बर मुनिराज ही सच्चे गुरु कहलाते हैं; क्योंकि वे किसी के प्रति राग-द्वेष के भाव नहीं रखते। जैसा कि कहा गया है -
णिप्वाणसाधए जोगे सदा जुजति साधवो.।
समा सव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो ।। 122
अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करानेवाले मूलगुणादि तपश्चरणों को जो साधु सर्वकाल अपने आत्मा से जोड़ते हैं और सर्व जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे सद्गुरु कहलाते हैं।
इसी प्रकार सद्गुरु (साधु परमेष्ठी) का स्वरूप द्रव्यसंग्रह में भी बताया है -
दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्चसुद्धं साहू सो मुणी णमो तस्स ।।123
अर्थात् जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण, मोक्ष के मार्गभूत, सदा शुद्ध चारित्र को प्रकटरूप से साधते हैं, वे मुनि साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। नाटक समयसार में पण्डित बनारसीदासजी लिखते हैं -
ग्यान को उजागर, सहज-सुखसागर सुगुन-रतनागर, विराग-रस भरौ . है। सरन की रीति हरै, मरन कौन भै करै करन सौं पीठि दे, चरन अनुसर्यो है।।