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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 121 जाय नरग पशु नर सुर गति में, ये परजाय विरानी। सिद्ध-स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी। कियो न काहू हरै न कोई, गुरु शिख कौन कहानी। जनम-मरन-मलरहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी।। सार पदारथ है तिहुँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी। द्यानत सो घटमाहिं विराजै, लख दूजै शिवधानी।। जानत ।।100
जब निश्चय शुद्ध आत्मा के दर्शन हो जाते हैं तो राग-द्वेष-मोह भाव नष्ट हो जाते हैं। उस समय अखण्ड आत्मज्योति का साक्षात्कार होता है। फलस्वरूप अतीन्द्रिय आनन्द की धारा प्रवाहित हो जाती है। इन्द्री भावों को द्यानतरायजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है।
अब हम आतम को पहिचान्यौ।। टेक।। . . जब ही सेती मोह सुभट बल, छिनक एक में मान्यौ।। अब ।। . राग विरोध विभाव भजे झर, ममता भव पलान्यौ। दरसन ज्ञान चरन में, चेतन भेद रहित परवान्यौ।। अब ।। जिहि देखै हम और न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यौ। ताकौ कहो कहैं कैसै करि, जा जाने जिम जान्यौ।। अब ।। पूरब भाव सुपनवत् देखे, अपनो अनुभव तान्यौ। । द्यानत ता अनुभव स्वादत ही, जनम सफल करि मान्यौ।। अब । |10
शुद्धभाव का आश्रय लेकर अपने निज प्रभु परमात्मा को प्राप्त करने को प्रेरित करते हुए वे लिखते हैं कि -
शुद्ध आतमा निहारि राग-दोष मोह टारि। क्रोध मान बंक गारि लोभ भाव भानरे। पापपुन्य कौ विहारि, सद्धभाव को सँभारि। मर्मभाव कौं विसारि, पर्मभाव आनुरे ।। ... चर्मदृष्टि ताहि जारि सुद्धद्दष्टिकौं पसारि। .:. दे हने ह कौं निवारि सेतध्यान ठानु रे । . . . जागि जागि सैन छारि भव्य मोख कौं विहार, ..
एक वारके कहे हजार वार जानु रे ।1111 .....
शुद्धात्मा के अनुभव में राग-द्वेष-मोह के साथ-साथ कषायें भी बाधक हैं। कषाय अर्थात् जो आत्मा को कसे अर्थात् दुःख दे, उसे कषाय कहते हैं।