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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 123 क्रोध लोभ विषयन तजो, सुन भाई रे। ..
कोटि कटे अधजाल, चेतन सुन भाई रे।1114
कषायभावों के अभावपूर्वक ही सुख की प्राप्ति होती है। इसको बताते हुए कहते हैं कि -
राग रोष संकल्प है, नय के भेद विकल्प।
रोष भाव मिट जाय जब, तब सुख होय अनल्प ।। 28 ||115 (7) द्यानतराय के अज्ञान के अभाव के विषय में विचार
. जैनदर्शन में ज्ञान को सम्यक् विशेषण से विभूषित कर परिभाषित किया है कि जो वस्तुस्वरूप को परिपूर्ण जानता है, कम नहीं जानता है, अधिक नहीं जानता। जैसा वस्तु का यथार्थ सत्यस्वरूप है, वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, संशय रहित जानता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं तथा जो वस्तुस्वरूप को यथावत् नहीं जानता, उसे अज्ञान कहा गया है। उस अज्ञान को जैनदर्शन में मिथ्याज्ञान कहा गया है। उस मिथ्याज्ञान को मिथ्यात्व भी कहा जाता है।
यह जीव अनादिकाल से ही मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के कारण दुखी है। इन तीनों के कारण चार गति, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए जन्म-मरण का दुःख भोग रहा है। मिथ्यादर्शनादि विकारी भावों के कारण विविध संयोगों के बीच में रहते हुए भी इसे आज तक सुख प्राप्त नहीं हुआ। ये अज्ञान भाव अनादिकाल से चले आ रहे होने के कारण अग्रहीत मिथ्यात्व कहलाते हैं।
_इनके अतिरिक्त इन्हीं को पुष्ट करनेवाले अनेकानेक बाह्य कारणों में अपनी अज्ञानता से स्वयं उलझकर या अन्य के माध्यम से उलझकर यह जीव अनन्त दुःख भोग रहा है। इन्हें नया ग्रहण करने के कारण ये गृहीत मिथ्यात्व कहलाते हैं। इस जीव के अनन्त दुःखों के एकमात्र कारणभूत इन विकारीभावों के सम्बन्ध में छहढालाकार दूसरी ढाल में इस प्रकार लिखते हैं -
ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञान-चर्ण वश, भ्रमत भरत दुःख जन्ममर्ण। तातैं इनको तजिए सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान ।। 110
- इस प्रकार यह जीव अपने ही अज्ञान भाव-मिथ्यादर्शन -ज्ञान-चारित्ररूप अज्ञानता के कारण दुःखी है तथा इस अज्ञानता को