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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना तब तू निकसि निगोद सिंधु तैं, थावर होय न सारा रे ।। भाई ।। क्रम क्रम निकसि भयौ विकलत्रै, जो दुख जात न गाया रे ।। भूख प्यास परवस सही पशुगति बार अनेक विकाया रे ।। भाई । । नरक माहि छेदन भेदन बहु पुतरी अगनि जलाया रे सीत तपत दुरगध रोग दुःख जानै श्री जिनराया रे || भाई || भ्रमत भ्रमत संसार महावन कबहुँ देव कहाया रे ।। लखि पर विभव, सहयौ दुख भारी, मरन समै विललाया रे ।। भाई || पाप नरक पशु पुण्य सुरग वसि, काल अनन्त गमाया रे ।। पाप पुण्य जब भए बराबर तब कहुँ नर भौ जाया रे । । भाई । । नीच भयौ फिरि गरभ पड्यौ, फिरि जनमत काल सताया रे ।। तरुन पनौ तू धरम न चेतौ तन धन सुत लौ लाया रे || भाई । । दरब लिंग धरि-धरि मरि-मरि तू फिरि फिर जग भज आया रे । द्यानत सरधा जु गहि मुनिव्रत अमर होय तजि काया रे ।। भाई । । 102 मनुष्य जन्म होने के समय के दुःखों का वर्णन करते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं.
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कहा देखि गरवाना रे भाई ।।
गहि अनन्त भवतैं दुख पायो, सो नहि जात बखाना रे || भाई || माता रुधिर पिता को वीरज, तातै तू उपजाना रे ।। गरभवास नौ मास सहे दुख, तल सिर पाउ उचाना रे ।। भाई । । मास आहार विगल मुख निगल्यौ सो तू असन गहाना रे ।। जती तार सुनार निकालै, सो दुख जनम सहाना रे || भाई || आठ पहर तन - मल-भल धौयौ, पोख्यौं रैंन विहाना रे ।। सो शरीर तेरे संग चल्यौ नहिं, खिन मैं खाक समाना रे || भाई || जनमत नारी बांटत जोवन समरथ दरव नसाना रे ।।
सो सुत तू अपनौ करि जानै, अन्त जलावै प्राण रे || भाई || देखत चित्त गिलाय हरैं धन मैथुन प्राण पलाना रे ।। सो नारी तेरी है कैसे मूये प्रेत प्रवानां रे || भाई । । पाँच चोर तेरे अन्दर बैठे । तै पाना मित्राना रे ।।
खाइ जीव धन ग्यान लटकै, दोष तेरे सिर ठाना रे । । भाई ।।